________________
११६
जैनेन्द्र की कहानियों [तृतीय भाग] दिन तो इसको गिर ही जाना है । ईश्वर जब भी वह दिन लाये । इसलिए इसकी मुझको फिक्र नहीं है । घूमता, भटकता फिर कभी भाग्य हुआ तो मैं आपके दर्शन करने आऊँगा। अभी तो मुझको आगे चलने दीजिये।" ....:. . . . . ....
मंगलदास ने कहा, "वैरागी, तुम मेरी धर्म-भावना में बाधा डालने की कोशिश करते हो । मैं ईश्वर की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। तुम्हारी मुझको बिलकुल चिन्ता नहीं है। तुम्हारे जैसे बहुतेरे ढोंगी फिरते हैं। यह तो ईश्वर की मुझको श्राज्ञा है कि मैं तुम पर दया दिखाऊँ। इसी से मैं उस आज्ञा को टाल नहीं सकता, नहीं तो तुम्ही सोचो कि मुझे यहीं भजन-प्रार्थना का सब सुभीता है। मैं उसे छोड़कर जाने वाला नहीं हूँ। इसीलिए सुनते हो वैरागी, अगर तुम भलमनसाहत से रहना चाहते हो तो बिना मुझसे अनुमति लिये और बिना मुझे साथ लिये कहीं मत जाना ! नहीं तो तुम मेरी शक्ति को जानते हो। यहाँ गाँव-वालों को इशारा-भर करने की जरूरत है । तुम्हारा फिर कहीं पता तक नहीं मिलेगा।”
वैरागी की समझ में मंगलदास की बात बस इतनी ही आई कि मंगलदास ईश्वर की प्रार्थना का पालन करना चाहता है और उसमें मुझे बाधक नहीं बनना चाहिए । यह सोच कर वैरागी वहाँ रहने लग गया और मंगलदास की सेवा-शुश्रूषा करने लगा।
- तब उस मंगलदास ने गाँव के एक जवान लड़के को एकान्त में अपने पास बुलाकर कहा कि, "देखो, वह हमारा चेला हो गया है। हमारी बड़ी भक्ति-श्रद्धा रखता है। इसलिए हमने उसको वरदान दिया है कि जब यह किसी शुद्ध प्रयोजन से कहीं जायगा तो इसके हर एक कदम रखने पर एक-एफ अंशी बनती जायगी। देखी तुमने भक्ति की शक्ति ! यह प्रताप तपस्या का है ! अब तुम