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११८ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग]
एक रोज़ की बात है कि इसकी स्त्री ने घड़े में से सामान निकाला, तब मोहरें भी उसमें से निकलीं। यह देखकर खुशी के साथ उसे गुस्सा भी हुआ और उसने शाम को पति के आने पर खूब झगड़ा मचाया । कहने लगी कि तुम यों तो पैसे-पैसे के लिए मुझसे झूठ बोलते हो; मेरा हाथ तंग रहता है, कमाई में कुछ नहीं मिलता है, इस तरह के बहाने बनाते हो और यहाँ घर में मोहरें छिपा रखी हैं !
बात अड़ोस-पड़ोस वालों ने भी सुनी ! अशी का नाम सुनकर लोग बड़े उत्सुक हुए और जब सुमेर ने कुछ नहीं बताया तो चोर समझकर मारने-पीटने लगे। तब उसने कहा, "मैं चोर नहीं हूँ । साधू जी ने मुझको ये मोहरें दी हैं।" ___ इससे गाँव के लोगों में मंगलदास का प्रताप और चढ़-बढ़ गया। वह बहुत सादे ढंग से रहता था। इतना धन होकर भी सादगी से रहना कम बात नहीं है। सच्चे त्यागी पुरुष ही ऐसे रहा करते हैं। यह सोचकर गाँव-वालों की भक्ति सन्त मंगलदास में और भी गहरी हो गई। ___ उधर वह बेचारा वैरागी जंगल से लकड़ी चुन कर लाता। कण्डे बीनता और उनसे भोजन बनाता और साधु की हर तरह की टहल-चाकरी करता।
लेकिन धीमे-धीमे उसको इस बात का बड़ा अचरज होता जाता था कि मेरे साथ साधु जी का आदमी क्यों चलता है ? उसने सोचा कि मेरे काम में कुछ त्रुटि रहती होगी। इसीलिए साधु जी दया-भाव के कारण आदमी को मेरे साथ भेजते हैं।
लेकिन जब भेद खुल गया तब सुमेर के लिए मौन बने रहने का कारण भी नहीं रह गया । गुरु जी में उसकी श्रद्धा बराबर कम