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जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] आकर अभी तक तो किसी ने बाहर नहीं जाना चाहा है । यह तुम दोनों क्या बखेड़ा कर बैठी हो ? बुद्धि तुम प्रमुख ठहरी । कुछ बेजा देखो तो दया से काम ले सकती हो। धृति, तुमको अपने कर्तव्य का ध्यान रखना चाहिए । जाओ, अब दोनों शान्ति से रहना, स्वर्ग बहुत बड़ा है, और यहाँ बताओ क्या नहीं है। सुना ? अब कोई शिकायत सुनने में न आवे ।"
बुद्धि, “इन्द्रजी, आप मुझे क्या समझते हैं ? धृति बच्ची होगी, मैं बच्ची नहीं हूँ। मैं बुद्धि हूँ । जहाँ रहूँगी, इज्जत के साथ रहूँगी। इज्जत नहीं तो स्वर्ग क्यों न हो, मुझे नहीं चाहिए।"
इन्द्र, "बुद्धि; तुम अ-स्थान भटक रही थीं। स्वामी महादेव की सिफारिश पर हमने तुम्हें यहाँ स्वर्ग में यह पद दिया। हम जानते हैं कि तुम सब अप्सराओं से योग्य हो; लेकिन स्वर्ग से सहसा गिर कर तुम इतनी मुद्दत मर्त्यलोक में रहीं कि स्वर्ग की प्रकृति तुमको याद नहीं प्रतीत होती है। स्वर्ग में विभेद मत फैलाओ। जैसी शान्ति थी, वैसी रहने दो।"
बुद्धि, "मैं शान्ति तोड़ती हूँ ? मैं विभेद फैलाती हूँ ? आप साफ क्यों नहीं कहते कि धृति का पक्ष आप लेना चाहते हैं।" ____इन्द्र, "नहीं बुद्धि, ऐसा नहीं है। तुम स्वर्ग की न सही, फिर भी स्वर्ग में अद्वतीय हो । तुम मर्त्यलोक की भी धुति हो । तुम वहाँ की मणि हो । महादेव जी ने जब तुम्हें देखा, मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके । उन्हें करुणा भी आई। तम्हारे तेज का उपयोग देख यहाँ ले आये और यहाँ स्वर्ग की अप्सराओं का तुम्हें प्रमुख पद मिला । बुद्धि, मुझे तुम में भरोसा है । जात्रो, धृति बेचारी अबोध है। यह अब से कुछ कसूर न करेगी। क्यों धृति, बुद्धि से बुद्धि सीखो।"