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प्रनवन
१.
कि कहो कि मालूम नहीं कि ऐसा हँसना बुरा होता है । इन्द्रजी,.. देखी आपने इसकी धृष्टता।" ___ इन्द्र ने कहा, "धृति इनको प्रमुख बनाया गया है, तो इनका मान रखना चाहिए और इनकी आज्ञा माननी चाहिए।"
धृति, "मैं तो सब-कुछ मानती आई हूँ। और भी जो आप और ये कहेंगी मैं मानूंगी। मुझे तो इनसे किसी तरह की शिकायत नहीं है।" ___ बुद्धि, “शिकायत तुम्हें क्यों होगी । दोष भी करो और शिकायत भी हो?"
धृति, “मैं मानती हूँ, मुझसे दोष हुआ होगा । दोप न हुआ होता, तो मुझ से यह अप्रसन्न न रहतीं।"
बुद्धि, "क्यों, यहाँ इन्द्रजी के सामने चतुराई चलती हो ? ऐसे. बोलती हो जैसे बड़ी भोली हो ।”
धृति, "मैं अपने कसूर के लिए क्षमा मागती हूँ।" यह कहकर धृति नीची गर्दन करके हाथ जोड़कर बुद्धि से क्षमा की याचना करने लगी।
बुद्धि ने कहा कि देखिये इन्द्रजी मैंने बहुत सहा। अब मेरे सहने की सीमा हो गई है। धृति का कपट-व्यवहार अब मुझ से सहा नहीं जाता । मैं आपसे कहती हूँ कि या तो स्वर्ग से उसे निकाल दीजिये, नहीं तो फिर मुझे छुट्टी दीजिए।
यह सुनकर इन्द्र असमन्जस में पड़ गए बोले, "बताओ धृति,. मैं अब क्या करूँ ?"
धृति, "अपराध मेरा ही रहा होगा । मुझे श्राप स्वर्ग से निकाल. दीजिए।"
इन्द्र, "यह बड़े खेद और लज्जा की बात है, धृति ! स्वर्ग में