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जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ]
इन्द्र, "अवज्ञा तो ठीक नहीं है । तुम प्रमुख हो, तब तुम्हारा श्रादर सबको करना चाहिए ।"
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बुद्धि, "आदर की भली कही । धृति तो मुझ से बोलती तक नहीं ।"
इन्द्र, "अच्छा, मैं धृति को यहीं बुलाता हूँ । बुलाऊँ ?” बुद्धि, "हाँ, बुलाइये | देखिये मैं उसको कायल करती हूँ कि नहीं ।" "वृति बुलाई गई ।
इन्द्र ने पूछा, "क्यों धृति, यह क्या बात मैं सुनता हूँ । अनबन रखना किसी को शोभा नहीं देता । यह बुद्धि कह रही है कि उनको प्रमुख नहीं मानती हो और उनकी अवज्ञा करती हो ।"
तुम
धृति ने गर्दन नीची करके कहा, “मैंने कभी कुछ कहा हो तो यह बतावें । मुझसे तो वैसे भी बोलना कम आता है ।"
बुद्धि, "वृति, सबके सामने बनो नहीं । बिना बोले क्या अवज्ञा नहीं हो सकती ? मैं जानती हूँ, तुम मुझे कुछ नहीं समझतीं ।"
धृति, "मैंने तो कभी ऐसा नहीं कहा । न कभी ऐसा मन में लाई, आपकी अवज्ञा मैं किस बल पर करूँगी ?"
बुद्धि, "बड़ी मीठी बनती हो; लेकिन मुझे छल नहीं सकतीं । उस रोज़ मुझे देखकर तुमने क्यों धीरे से मुस्कराया था ? मैं नाराज हो रही थी, और तुम मुस्करा रही थीं, क्या यह मेरा अपमान नहीं है ?"
धृति, "आप ऐसी आज्ञा प्रगट कर दें तो मैं अब से मुस्करा - ऊँगी भी नहीं । अभी मुझे यह पता नहीं दिया गया कि मुस्कराना नहीं चाहिए ।"
बुद्धि, "मेरे क्रोध पर तुम हँसोगी ? फिर भी इतनी हिम्मत