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किसका रुपया
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पहुँचना चाहता था । वह माँ को कहेगा-नहीं, नहीं कहेगा। रुपये को जेब में रख लेगा और कुछ नहीं कहेगा, पर नहीं मिठाई माँ को भी दूँगा । सब को दूँगा । सब को, सब को मिठाई दूँगा ।
इस तरह चलते-चलते रमेश अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा कि वहीं से उत्साह में चिल्लाया, "अम्माँ ! अम्माँ !”
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उसकी अम्माँ की कुछ न पूछिए । रमेश के चले जाने पर कुछ देर तो वह रूठी रहीं । फिर यहाँ-वहाँ डोल कर उसकी खोज करने लगीं। पर रमेश यहाँ न मिला, न वहाँ । कायस्थों के घर की शांति से पूछा तो उसे पता नहीं । और अमवालों के यहाँ के प्रकाश से पूछा तो उसे ख़बर नहीं। वह सारा मुहल्ला छान आयीं, पर रमेश कहीं न मिला । पहिले तो इस पर उन्हें बड़ा गुस्सा आया । फिर दुश्चिन्ताएँ घेरने लगीं । आखिर हार-हूर कर घर में अपने काम से लगीं और दफ्तर गये रमेश के बाप को कोस कोस कर मन भरने लगीं । उन्होंने ही तो ऐसा बिगाड़ कर रख दिया है। अपनी ही चलाता है, और जरा कुछ कह दो तो मिजाज़ का ठिकाना नहीं ! जाने कहाँ जाकर मर गया है कमबख्त ! भला कुछ ठीक है । मोटर है, साइकिल है, मुसलमान हैं, ईसाई हैं। फिर ये मुड़कटे डंडे वाले कंजरे घूमते फिरते हैं। कहते हैं बच्चों को झोली में डाल कर ले जाते हैं । कहाँ जाकर नस गया, मर मिटा ! मेरी आत है । बस सब काम में मैं ही । भगवान् मुझे उठा क्यों नहीं लेता.
दरवाजे से रमेश की आवाज सुनते ही उनका दिल उछल पड़ा । सोचा कि आने दो, उसकी हड्डियाँ तोड़ कर रख दूँगी । दुष्ट मुझे कैसा सताया है । पर इस ख्याल के बावजूद उनकी आँखों में पानी उतर आने को हो गया । और भीतर से उमग कर बालक के लिए बड़ा प्यार आने लगा ।