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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] रमेश ने कहा, "अम्माँ, अम्माँ ! सुन-अच्छा मैं नहीं बताता।"
अम्माँ ने अपने विरुद्ध होकर डाट कर कहा, "कहाँ गया था रेतू ? यहाँ मैं हैरान हो गयी हूँ । अब आया तू !" ।
रमेश ने वह कुछ नहीं सुना । बोला, "अम्माँ सच कहता हूँ। दिखाऊँ तुम्हें ?" ___अम्माँ ने कहा, "क्या दिखायगा ? ले, आ, भूखा है कुछ खा ले।" कह कर माँ ने रमेश के कन्धे पर प्यार का हाथ रखा और रमेश छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ । बोला, "पास से नहीं दूर से देखो । नहीं तो ले लोगी। ये देखो।"
"अरे, रुपया ! कहाँ से लाया है ?" "रास्ते में पड़ा था।" "देखू !"
रमेश ने पास आकर रुपया माँ के हाथ में दे दिया। माँ ने उसे अच्छी तरह परख कर देखा-एकदम खरा रुपया था ।
रमेश ने कहा, "लायो।" माँ ने कहा, "तू क्या करेगा । ला, रख दूं।" "मेरा है।" "हाँ, तेरा है । मैं कोई खा जाऊँगी ?"
माँ का ख्याल था कि रमेश रुपया बेकार डाल आयगा। रुपया पाने पर वह बेहद खुश थीं। इस रुपये में अपनी तरफ से कुछ
और मिलाकर सोचती थीं कि रमेश के लिए कोई बढ़िया इनाम की चीज़ मँगा दूंगी। ऐसे उसके हाथ से रुपया नाहक बरबाद जायगा । पर रमेश के मन में से अभी वह जुलूस मिटा नहीं था। सोचता था कि मैं यह लाऊँगा, वह लाऊँगा । और मिठाई लाकर