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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
'अनिच्छा, न क्रोध, न खुशी। बस एक अलक्ष्य के सहारे वह अपने घर की ओर चल दिया ।
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चलते-चलते, अरे, यह क्या ? वह दो डग लौटा, झुक कर देखा । सचमुच रुपया ही था । उसने उसे दबाया । इधर-उधर से देखा । एकदम रुपया ही था ! उसे बड़ी खुशी हुई। लेकिन फिर सहसा अपनी खुशी को मानो ग़लत जान कर वह गम्भीर होगया । रुपया जेब में रख लिया और धीर - गम्भीर बनकर चलने लगा । पर पैसे की क़ीमत का उसे पता था । एक पैसे में मिठाई की आठ गोलियाँ आती हैं। एक रुपये में चौंसठ पैसे होते हैं। चौंसठ में से हर एक पैसे की आठ-आठ गोलियाँ और पेंसिल लाल-नीली और पेंसिल बनाने का चाकू और रबर, फुटा और परकार और मिठाई और खिलौने, हाँ, और नई स्लेट और चाक —चाक की लम्बीलम्बी बत्तियाँ और काँच की रँग-बिरंगी गोलियाँ और लट्टू और पतंग और गेंद और सीटी इस तरह बहुत-सी चीजों की तस्वीरें उसके मन में एक-एक कर आने लगीं। वे बड़ी जल्दी-जल्दी श्र रही और गुजर रही थीं। उसके मन की आँखों के आगे से जैसे एक जुलूस ही निकलता जा रहा था । उसको देखकर मन में उछाह आता था । पर अब भी वह ऊपर से गम्भीर और आहिस्तेआहिस्ते चला जा रहा था ।
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धीमे-धीमे कदमों में तेजी आ गई। मानों अब उनमें लक्ष्य है । पर उसे नहीं, वह पैरों को चला रहा है। चेहरे पर भी अभाव अब नहीं रह गया है । अपनी कल्पनाओं से अब उसे विरोध नहीं है, वह उनका हमजोली है। उनके रंग में हमरंग है। जुलूस उसी का है और उसमें चलने वाली रंग-बिरंगी चीजें उसकी ताबेदार हैं। उसने जेब से रुपया निकाला, और फिर देखा । वह जल्दी घर