________________
७०
जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] वह हार जायगा, बहुत कहेगा, तब मैं उसे अपनी कुटी के भीतर ले लूंगी।
मनोहर उधर अपने पानी से हिल-मिलकर खेल रहा था। उसे क्या मालूम कि यहाँ अकारण ही उस पर रोष और अनुग्रह किया जा रहा है।
बालिका सोच रही थी—मनोहर कैसा अच्छा है, पर वह दंगई बड़ा है । हमें छेड़ता ही रहता है । अबके दंगा करेगा, तो हम उसे कुटी में साझी नहीं करेंगे। साझी होने को कहेगा, तो उससे शर्त करवा लेंगे, तब साझी करेंगे । बालिका सुरबाला सातवें वर्ष में थी। मनोहर कोई दो साल उससे बड़ा था । ___बालिका को अचानक ध्यान आया-भाड़ की छत तो गरम होगी। उस पर मनोहर रहेगा कैसे ? मैं तो रह जाऊँगी । पर मनोहर तो जलेगा । फिर सोचा-उससे मैं कह दूंगी भई, छत बहुत तप रही है, तुम जलोगे, तुम मत आओ । पर वह अगर नहीं माना ? मेरे पास वह बैठने को आया ही तो ? मैं कहूँगी-भाई, ठहरो, मैं ही बाहर आती हूँ।...पर वह मेरे पास आने की जिद करेगा क्या ?...जरूर करेगा, वह बड़ा हठी है ।...पर मैं उसे आने नहीं दूँगी । बेचारा तपेगा-भला कुछ ठीक है ! ज्यादा कहेगा, मैं धक्का दे दूँगी, और कहूँगी-अरे, जल जायगा मूर्ख ! यह सोचने पर उसे बड़ा मजा-सा आया, पर उसका मुंह सूख गया । उसे मानो सचमुच ही धका खाकर मनोहर के गिरने का हास्योत्पादक और करुण दृश्य सत्य की भाँति प्रत्यक्ष हो गया।
बालिका ने दो-एक पक्के हाथ भाड़ पर लगा कर देखा-भाड़ अब बिलकुल बन गया है। माँ जिस सतर्क सावधानी के साथ अपने नवजात शिशुको बिछौने पर लेटाने को छोड़ती है, वैसे ही