________________
खेल मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और एक बालिका अपने को और सारे विश्व को भूल, गँगातट के बालू और पानी को अपना एक मात्र आत्मीय बना, उनसे खिलवाड़ कर रहे थे।
प्रकृति इन निर्दोष परमात्मा-खण्डों को निस्तब्ध और निर्निमेष निहार रही थी। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तटके जल को छटा-छट उछाल रहा था । पानी मानो चोट खाकर भी बालक से मित्रता जोड़ने के लिए विह्वल हो उछल रहा था । बालिका अपने एक पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी।
बनाते-बनाते भाड़ से बालिका बोली, "देख, ठीक नहीं बना, तो मैं तुझे फोड़ दूंगी।" फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी । सोचती जाती थी-इसके ऊपर मैं एक कुटी बनाऊँगी वह मेरी कुदी होगी। और मनोहर ?...नहीं, वह कुटी में नहीं रहेगा, बाहर खड़ा-खड़ा भाड़ में पो झोंकेगा। जब
६६