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प्रात्मशिक्षण
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उनका धैर्य छूट गया और उन्होंने एक चाँटा कनपटी पर दिया, कहा, “ मक्कारी न करो, सीधी तरह खाने लग जाओ ।"
इस पर रामचरण बिल्कुल नहीं रोया, न शिकायत का भाव उस पर दिखाई दिया । वह शान्त-भाव से थाली की तरफ हाथ बढ़ा कर टुकड़ा तोड़ने लगा । माता और पिता दोनों पास खड़े हुए देख रहे थे । रामचरण का मुँह सूखा था और ऐसा लगता था कि कौर उससे चबाया नहीं जा रहा है । इस बात पर उसके पिता को तीव्र क्रोध आया, पर जाने किस विधि वह अपने क्रोध को रोके रह गये ।
पाँच-सात कौर खाने के बाद रामचरण सहसा वहाँ से उठा, जल्दी-जल्दी चलकर बाहर आया, नाली पर पहुँच कर सब के कर बैठा ।
पिता यह सब देख रहे थे । मुँह साफ़ करके रामचरण लौटा तो पिता ने कठिनाई से अपने को वश में करके कहा, "अच्छा हुआ । क़ै तो अच्छी चीज़ है । अव स्वस्थ हो गये होगे, लो अब खाओ ।" रोमचरण ने आँखों में पानी लाकर कहा, "मुझे भूख बिल्कुल नहीं है ।"
"लेकिन तुमने सबेरे से खाया ही क्या है ?" पिता ने कहा । “देखो रामचरण, यह सब श्रादत तुम्हारी नहीं चलेगी। जिद की हद होती है । या तो सीधी तरह खालो, नहीं तो अब से हमसे तुम्हारा वास्ता नहीं — बोलो, खाते हो ?”
रामचरण ने कहा, “मुझे भूख नहीं है ।"
इस पर पिता ज़ोर से बोले, "लो जी, ये उठा ले जाओ थाली । अब इनसे ख़बरदार जो तुमने कुछ कहा । हम तो इनके लिए कुछ हैं ही नहीं। फिर कहना सुनना क्या ?"