________________
जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] थाली वहाँ से उठ गई और रामचरण बिना कुछ बोले हकाबका-सा पिता को देखता रह गया। पिता वहाँ से जाते-जाते पुत्र से बोले, "सुनिये, अब आपका राज है, जो चाहे कीजिए, जो चाहे न कीजिए । हमने आपको इसी रोज़ के लिए पाला था ।" कहते-कहते उनकी वाखी गदगद हो आई । बोले, "ठीक है, जैसी आपकी मर्जी । बुढ़ापे में हमें यही दिन दिखाइएगा।" ___ कहते हुए पिता वहाँ से चले गये। रामचरण की आँखों में आँसू आ गये थे। पर पिता के जाने पर अपना सिर हाथों में लेकर वह वहीं खाट पर पड़ गया।
रात होती जाने लगी। पर पिता के मन का उद्वेग शान्त होने में न आता । उनको रोष था और अपने से खीज थी। वह विचारवान् व्यक्ति थे । सोचते थे, लड़के में दोष हमसे ही आ सकता है। त्रुटि कहीं हममें ही होगी। लेकिन खयाल होता था, जिद अच्छी नहीं है । दिनमणि का कहना है कि लड़के को शुरू से काबू में नहीं रक्खा, इससे वह सिर चढ़ गया है। क्या यह गलती है ? क्या डाँटना बुरा है ? लाड़ से बच्चे बेशक सम्भल नहीं सकते । लेकिन मैंने कब उसकी तरफ ध्यान दिया है। उसने कभी कुछ पूछा है तो मैंने टाल दिया है । न उसकी माँ ही समय दे पाती है । मैं समझता हूँ कि लापरवाही है जिससे उसमें यह आदत आई है। ___ सोचते-सोचते उन्होंने पत्नी को बुलाया और पूछा और जिरह की। वह कहीं-न-कहीं से बच्चे से बाहर दोष को पा लेना चाहते थे। पर जिरह से कुछ फल नहीं निकला। उन्हें मालूम हुआ कि वह स्कूल से घर रोज़ से कुछ जल्दी ही आया था।
"पूछा नहीं, जल्दी क्यों आया है ?"