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१७८ जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] देना चाहती है। वह चिचयाई, फिर मुंह बन्द कर वैसी ही बैठी रह गई।
कि, पानी बरसने लगा । चिड़िया भीगने लगी। बूंदें आती, टप चिड़िया के ऊपर टपकतीं। पर चिड़िया वहीं डाल पर बैठी रही । वह बिल्कुल भीग गई, काँपने लगी; पर वह फिर नहीं रोयी चुपचाप वहीं बैठी रही। चैन से सोने के लिये अपने घोंसले में नहीं चली गई।
सब बिसार कर जैसे वह यहाँ बैठी है। उसे याद नहीं, उसका कोई घोंसला भी है । उसे पता नहीं, यदि उसका यहाँ कोई भी, कुछ भी है। क्या उसको यह पता है, कि वह अभी मरी नहीं है, जीती है ? ___मेह गिरता रहा, और वह भीगती रही।
अब सबेरा पास है। मेंह रुक गया है। तारे खिले थे, वे भी झिप गये हैं। कुछ उनमें अभी झिप-झिप जीते हैं । चिड़िया रातभर डाल पर बैठी रही है । वह वहीं है। वह घोंसले में नहीं गई। आराम की जैसी उसे सुध नहीं है। वह विपत नहीं चाहती; पर जैसे जानती नहीं, विपत किसे कहते हैं। गुम-सुम डाल पर बैठी है, जैसे और सब कहीं से उसका नाता टूट गया है। ___ एक दूसरी चिड़िया चहचहाती हुई उसके पास था बैठी। वह अपने परों को अभी फरफराती थी, अभी फुलाती थी। उसके भीतर का उल्लास उसमें समा नहीं रहा था। वह आकर एक जगह पंजे टेककर बैठ नहीं गई, कुछ देर यहाँ से वहाँ फुदकती रही। फिर दूसरी चिड़िया के पास आकर छोटी-सी अपनी लाल चोंच खोलकर बोली, "माँ!"