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जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] खिड़कियों को राह ही बाहर किया जायगा और पीछे-पीछे उनकी गठरी-पोटरियों को भी फेंक दिया जायगा।
गाड़ी का रुकना था कि कुछ पता न चला कि क्या हो रहा है। हो-हल्ला वह कि क्या पूछिये । जहाँ-तहाँ चटाख-पटाख और उठा पटक । योद्धा मोर्चे पर थे। लेकिन नीचे प्लेटफार्म पर कम विकट भट न थे । इधर खिड़की से उठा कर एक बुड्ढे देहाती को नीचे सरकाने का प्रयत्न शुरू होता ही था कि देखते-देखते एक आकार दैत्य-सा बृहत् खिड़की में से तीर के मानिन्द टूट कर हमारे सामने सीधा आन खड़ा हुआ है । लोगों के सिरों और सामानों के ऊपर से यह विराटता खिड़की की क्षुद्रता में से किस जादू-मन्तर के जोर से यहाँ आविर्भूत हो पड़ी है-यह समझ-समझे कि उसने पराक्रम दिखाना शुरू कर दिया। कितना विकराल और अद्भुत वह पराक्रम ! कैसे वह सब के अवरोधों और प्रतिरोधों को सर्वथा व्यर्थ करके खिड़की के छिद्र में से एक-एक कर अनगिनत बोरे, कनस्तर, ट्रंक खींच कर बाहर से अन्दर करने लगा था । अवकाश अपने में जाने अनन्त होता है क्या। सामान आता गया और समाता गया । देखते-देखते एक अम्बार खड़ा हो गया । डिब्बे के आदमी अब अपनी जान की खैर में जहाँ-तहाँ बचने और सिमटने लगे। वह महाशय प्राणी, धीर और शान्त, अपना कार्य किये जा रहा था। महाप्राण पुरुषों की भाँति हिंसा-अहिंसा-जैसे निष्फल विचार से वह उत्तीर्ण था । चारों ओर से पड़ती हुई गालियों और चोटों के प्रति धीर और उदात्त, मौन और एकान्त, बस वह सामान खींचे जा रहा था। गठरी-पोटलियों के बाद, देखते हैं, एक नई प्रकार की सामग्री ने श्राना शुरू किया है। इस खिड़की से दूसरी तरफ की खिड़की की खबर लें, ऐसी लम्बी-लम्बी लकड़ी की