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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] कर, संशय को छिन्न करके उन्हें उबार लेता है। जैसे वह बच गये, नहीं तो डूबे जा रहे थे। वह विनोद के आभारी हुए। अब अपने को संकट में नहीं डालेंगे, तुरन्त चले जायँगे । लाला लोगों के साथ उठकर वह भी चल पड़ने को तैयार हो गये। बोले, "विनोद, सिर में दर्द है तो यहाँ आकर इन पोथों से क्यों मग़जपच्ची करते हो ?" ___विनोद ने कहा, "नहीं; यों ही वक्त काटता था। धनीचन्द ने चलने के लिए मुड़ते हुए कहा, "विनोद, अब तुम घर जाकर आराम करो न । बाकी फिक्र न करो, मैं सब ठीक कर दूंगा।"
धनीचन्द यह कहकर चल दिये। विनोद फिर सिर झुकाकर इन्साइक्लोपीडिया में फँस गया। क्षण-भर में फिर सिर उठाया,
और आवाज देकर धनीचन्द को फिर वापिस बुला लिया। कहा, "धनीचन्द, तुम्हारा भतीजा बीमार है।"
धनीचन्द, "तो पहले से क्यों न कहा ? यही वजह है तो फिर तुम्हारा काम न करने की।"
विनोद, “बीमारी-वीमारी कुछ ऐसी नहीं है। खाँसी है । पर खाँसी बढ़ जाय तो।......"
धनीचन्द, "किसकी दवा की है ?" विनोद, "दवा ? दवाओं से तो मैं घबड़ाता हूँ।"
धनीचन्द, "नहीं, डाक्टर को दिखा देना अच्छा होता है। इन्साइक्लोपीडिया से डाक्टर अच्छा रहेगा।"
विनोद ने जैसे यह बात नहीं सुनी। कहा, "धनीचन्द, कभी घर आना न । अपने भतीजे को देख आना।"
धनीचन्द ने कहा कि जरूर आयँगे। आज क्या है, बृहस्पतिवार; इतवार को प्रायँगे । इतवार ही अवकाश का दिन है।
विनोद ने कहा, "जरूर आना । जल्दी आ सको तो अच्छा ।