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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
सुनयना ने पूछा, "यह क्या ले आये ?"
विनोद ने कहा, "तुम कहती थीं खिलौना खिलौना । मैंने भी लो
कहा,
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सुनयना, "यह विलायती थोड़े ही है ।"
विनोद, "अरे, विलायत बड़ीं कि तुम ?"
सुनयना, “लल्लू तो इसे बड़ा खेल के रखेगा न ।” विनोद, " तो न लाता ?"
सुनयना, “लाते तो छोटे-छोटे लाते, जो कुछ काम के भी होते लल्लू के । उठा लाये यह ढीम ! - कितने का है ?"
विनोद, “भई, यह बड़ी मुश्किल है । अब कितने का ही हो, तुम्हें क्या । जब पसन्द ही नहीं आया, तो जाने दो ।"
सुनयना ने एकदम विनोद का हाथ पकड़कर कहा, "नहीं, सच, कितने का है ?"
विनोद ने कहा, "कितने का है ? है अठारह रुपये का । अब कह दिया तो कहोगी, मैं बेवकूफ ।"
सुनयना ने बहुत हँसकर कहा, "तो ठीक तो है । अठारह डाल आये, जब पाँच में दुनिया भर के खिलौने आ जाते और लाये भी क्या कि.
विनोद ने झट उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा, "तुम्हारा सिर ।"
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दफ्तर से लौटकर आये हैं। अब खाना खा - वाकर कचहरी जायँगे । उसी समय सुनयना ने आकर सूचना दी, “लल्लू को खाँसी बड़ी उठने लगी है । न जाने कैसा जी है ।"