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________________ १३० जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] विनोद ने भाँति-भाँति की जुगत से बालक को मनाने की कोशिश शुरू की। सुनयना लौटी। उसकी तरफ़ बिना देखे ही विनोद ने हाथ फैला दिये, कहा, "लाओ।" । सुनयना ने कहा, "क्या लाऊँ ? कहीं मिलता भी हो।" विनोद ने कहा, "मिलेगा क्यों ? कहीं रक्खा जाय ठीक जब न...बस, यह हाल है।" सुनयना बोली, “हाँ, यह हाल है। बड़े सारे झुनझुने लाकर रक्खे थे न, जो मैंने खो दिये।" । विनोद ने कहा, "अरे, तो कुछ और ला दो। देखो, यह रो रहा है।" सुनयना, “ला न दूँ कुछ और। बड़ी चीज ला दी हैं न, जो उठा लाऊँगी हाँ तो, कहते-कहते हार गई, कभी हाथ में जो दो खिलौने लेकर लौटते हों।" इधर बालक ने पास ही एक लावारिस पड़े चम्मच पर कब्जा कर लिया था। इस वस्तु के साथ कुश्ती लड़ने में उसे रोने का ध्यान जाता रहा था । विनोद ने कहा, "अरे, तुम तो झगड़ती हो!" सुनयना ने कहा, “झगड़ने की बात ही तुम करते हो । सच बताओ, कभी भूलकर कोई खिलौना लाये हो ! फिर कहते हो, यह लाना, वह लाना । जिसपर कहते हो, मैं झगड़ती हूँ।" विनोद, "अच्छा-अच्छा, अव नहीं कहूँगा।" सुनयना, "नहीं, कहोगे क्यों नहीं। पर लाकर दिया भी तो करो। सच, अबके ला देना, वह होते नहीं हैं, छोटे-छोटे रबरके-से जापानी खिलौने ।” विनोद, "जापानी खिलौने ? जापानी कैसे लाये जाएँगे ?"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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