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________________ तमाशा १३१ सुनयना, "तो और ले आना । देसी ले आना।" विनोद, "देसी, मिट्टी के ? सबेरे आये,शाम को टूटे दीखेंगे।" सुनयना-तो काठ के ले आना। विनोद-काठ के अच्छे नहीं आते। अच्छे आते हैं तो दाम लगते हैं बहुत। सुनयना, "तो और कैसे भी ले आना।" विनोद, "और कैसे भी कैसे ? कुछ समझ में भी आवे ।" सुनयना, "तो मत लाना, बस । हाँ, तो । समझ में कैसे आये ? समझ में आये तब जब तबीयत हो । इसमें यह है, उसमें वह है, बस नुकस इनसे सब बातों में निकलवा लो, जो कभी कुछ करके भी रखते हों । कहते-कहते यहाँ जबान घिस जाय; पर इनको क्या पड़ी? अब मैं भी हूँ, जो कभी इनसे किसी बात को कुछ कहा।" इतना कहकर, एक झपट्टे में फर्श पर से खेलते हुए बालक को उठाकर, सर्र से अपने कमरे में चली गई। विनोद पहले तो मुस्कराने को हुए, फिर कुछ अप्रतिहत होकर अपनी बैठक में लौट आये और कपड़े पहनने लगे। और बाजार से लाये एक अठारह रुपये की मोटर। डिब्बे से निकालकर उसमें चाबी भर के आँगन में जरा किसी वस्तु से अटकाकर ऐसे रस्त्र दी कि खुद चले नहीं, और जरा उस प्रतिबन्ध को सरकाया नहीं कि फर से दौड़ पड़े। फिर उसके ऊपर चादर ढक दी। और गये। सुनयना बालक को बराबर में लेकर पलंग पर लेटी है । बालक सो गया है । सुनयना की आँखें मुंदी है, पर सो नहीं रही है । इस बालक के प्रति खोलकर अपना हृदय सामने रखकर जब इसने अपनी छाती का दूध उसे पिलाया है, तब चुपचाप कुछ आँसू भी
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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