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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] करो। अब कहते-कहते हार गई, तुम जरा ध्यान नहीं लाते । अच्छा, कहारी जाने दो, लल्लू के लिए एक लड़का जरूर रख दो। देखो इतना कर दो, बच्चा बेचारा आराम पा जायगा।..."
विनोद का मन समझता नहीं है, सो नहीं है । और वह मन दुखी भी है, क्योंकि प्रेम से भरा है। लेकिन विनोद ने कहा“बच्चा इसलिए थोड़े ही होता है कि नौकरों के हाथ वह खेले । माँबाप को उसे दुनिया में लाकर, अपने ही हाथों उसे दुनिया में अपने पैर जमाकर खड़े होने लायक बनाना चाहिए। और नौकर बड़े ऐसे-वैसे होते हैं, सो बच्चों को उनके हाथों सौंपकर माँ-बाप बड़ी गलती करते हैं। और घर में रुपया है, सो तुम ऐसा कहती हो। रुपया नहीं होता तो क्या करतीं ? और रुपया है, इसलिए उसे अपना समझकर मनमाना खर्च हम थोड़े ही कर सकते हैं। उसे अपना नहीं समझना चाहिए, अपने को गरीब ही समझना चाहिए और जितनी जरूरत हो उतना ही खर्चना चाहिए।"
विनोद के प्रेम को तो सुनयना समझती है, लेकिन उस प्रेम पर यह जो और एक अजनबी वस्तु हावी हो गई है, उसे बिल्कुल नहीं समझ पाती । बोली, "हमारा रुपया हमारा नहीं है, और हम उसमें से बच्चे के लिए एक नौकर भी नहीं रख सकते, यह तुम कैसी बात कहते हो ? तुममें नेक दया नहीं रह गई है। साफ क्यों नहीं कहते, नौकर नहीं रखना चाहते, मुझे ही पीसना चाहते हो।"
विनोद ने कहा, "हाँ, नौकर रखना चाहकर भी नहीं रख सकता। या कहो; नहीं हीरखना चाहता । और चाहता हूँ घर के काम और बच्चे के काम को हमी दोनों आपस में निभाकर, पिसें नहीं, धन्य हो । और मैं उस धन्य-भाव को किसी किराये के आदमी के साथ साझा देकर नहीं बाँटना चाहता । और रुपया हमरे पास रक्खा है,