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तमाशा
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नौकर रख दो । अब मैं इसे खिलाऊँ कि पानी दूँ ? मैं ही जानती हूँ, कैसा पिसना पड़ता है मुझे।'' विनोद ने कहा, "अच्छा, मैं ले लेता हूँ पानी।"
लेकिन सुनयना के रहते पानी खुद कैसे लेंगे ? बोली, “हाँ, पानी तो ले लोगे, ये नहीं कि मैं कहती हूँ, सो नौकर रख दो।" ।
इतना कहकर लल्लू को फिर पालने में लिटा दिया, और पानी दे दिया । बोली, "सच, देखो, बड़ी दिक्कत होती है। नौकर रख लोगे तो वह बाहर भी घुमा लाया करेगा। अकेली घर में मैं ही तो हूँ-सो सारा घर का काम भी और बच्चे की सारी देखसँभाल भी।....यह एक पराँवठा और लो....अच्छा आधा..."
विनोद ने इस सत्य को प्रत्यक्ष देख लिया है । वह क्या सुनयना पर काम का बहुत बोझ रखना चाहता है । लेकिन गम्भीर, चुप है।
सुनयना कह रही है, "और, देखो तुमने कहारिन भी नहीं रक्खी । मैं कबसे कह रही हूँ। तुम्हें ऐसा क्या हो गया है। मेरी बात कान पर ही नहीं लाते। इससे सुनी उससे निकाल दी । ऐसे तो मैं एक रोज चल दूंगी, फिर तुम सोचोगे, मैंने उसकी बात क्यों नहीं मानी।..."
विनोद क्या मन-ही-मन इस अप्रिय बात को खूब अच्छी तरह नहीं जानता ? लेकिन अपनी इस प्यारी सुनयना की बातों पर एकदम से 'हाँ' कहना भी उसके सामर्थ्य में नहीं है।
सुनयना ने कहा, "पहले कहते थे, बेटा होगा तो यह करेंगे, वह करेंगे। एक गाड़ी रक्खेंगे, तीन नौकर रक्खेंगे। अब यह चाँद-सा बेटा मिल गया है, तो कुछ सुध नहीं करते। ऐसी जाने क्या बात हो गई। पहले मेरा मुंह जोहते थे, मैं कहूँ, तो तुम पूरी