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________________ ११२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] सकती है । हमारी आत्मा यहीं से एक दूसरे में मिलती है । और देखो भाई, तुम्हारे आश्रय के नीचे इन्हें रक्खा गया है । ख्याल रखना, यह हमारा नन्हा सा फूल है, इसे खूब अच्छी-अच्छी तरह सुलाना' - धीमे-धीमे फेरकर मानो अपने अंगुली - स्पर्श द्वारा यह सन्देश और आशीर्वाद उन्होंने पलकों को दिया । हाथ उठाने पर फिर अपने उस सोये फूल को देखते रहे । फिर पैरों पर से तौलिया हटाया । चिकने चिकने, गुलाबी, वे मक्खन के पाँव तौलिये से उफ्रँककर सामने दिखाई दिये । मानों कह रहे हैं"हम मुँह से कम हैं ? आँख से कम हैं ?" उन्होंने देखा — ये कभी किसी से, किसी भी हालत में कम नहीं हैं। देखते-देखते पैरों की उँगलियाँ हिली-डुलीं, और सिर झुकाफिराकर मानों कहना चाहने लगीं - "हम भी खेलती हैं, हमें भी प्यार करो ।” इन्होंने बारी-बारी से झुककर उन दसों उँगलियों का चुम्बन लिया । फिर उन्हें उसी तरह तौलिये से ढँक दिया । तब पालने को दो-एक धीमे फोटे दे, वह कचहरी के कपड़े उतारने और हाथ-मुँह धोकर स्वस्थ होने चले गये । : २ : बहुत बरसों में यह बालक उन्हें मिला है, इस लिए बड़ा प्यारा है । ब्याह के साल दो-एक बाद ही पति-पत्नी को एक बच्चे की चाह हो आ आई । इस चाह ने बाँध उठा दिया, सोते फूट निकले, और समग्र शरीर और हृदय से रिस-रिस कर वात्सल्य बहने लगा। वह निर्झरिणी बनकर कहीं बरस पड़ना चाहता है ।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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