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तमाशा
११३ लेकिन झरझर करके जिस पर बरसे, वह है नहीं । इसलिए, पुत्र की कामना और पुत्र के प्रभाव ने मिल कर जो अन्तर में एक रिक्त पैदा कर दिया है, वह वात्सल्य चारों तरफ से बह-बह कर वहाँ
आकर जमा होने लगा । बरस-पर बरस बीत गये । स्नेह संचित होता-होता हृदय में लबालब भर गया है। इतना भर गया है कि कभी-कभी किनारों को तोड़ कर आँखों की राह थोड़ा झर पड़ना उसके लिए आवश्यक हो जाता है। ___ इधर देवाधिदेव महादेव इन स्नेहामृतों की बूंदों से अपनी एक छोटी-सी शीशी पूरी भर लेने की प्रतीक्षा में थे । पार्वतीजी के सिर-दर्द के लिए उसकी उन्हें जरूरत है। आखिर बूंद बूंद होते, दस बरस में वह शीशी पूरी भर गई । तब महादेवजी ने चैन की साँस ली।
तभी ग्यारहवें बरस इनको मिल गया प्रद्युम्न । वह संचित स्नेह का स्रोत तब अजस्र इस पर बरसने लगा। ___लाड़-प्यार में वह अब पाँचवाँ महीना पार कर गया है। छठे को भी तेजी से पार करता जा रहा है । बड़ा सुभागवान है। ___ बड़ा नामवाला है । अभी से कई इसके नाम हैं। साहित्य का श्राद्ध करके बालक के वकील पिता ने प्रद्युम्न को संस्कृत बनाया है, पर्दमन । कोई शुद्धि-प्रेमी जब कहता है-प्रद्युम्न, तब इन वकील को उस पर बड़ा तरस होता है । देखो, नाम भी ठीक नहीं बोला जाता, पर्दुमन । और तभी संशोधन कर देते हैं, कहते हैं-"क्या प्रद्युम्न, प्रद्युम्न ? ठीक बोलो, पदुमन ।” और यदि यह पर्दुमननाम-धारी जीव ऐसे उत्कट समय इनके पास ही होता है, तो दोनों हाथों में उसे अपने सिरसे ऊपर उठ कर कहते हैं-"क्यों बे, काठ के उल्लू, है न तू पर्दुमन ?” जब वह काठ का उल्लू उस साहित्य