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तमाशा
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यह पहले से भी जोर से बोले, "श्रो हो, पर्दुमन साहब सो
“बोलो नहीं, मैंने कहा”—यह पत्नी ने भी जोर से कहा।
“यह सोने का वक्त है ?" कह कर एक तरफ हलके-हलके झूलते हुए पालने को देखने लगे, उस प्रद्युम्न नामक काठ के उल्लू को कहना चाहते हैं, "सुना ? यह सोने का वक्त है ?" __ सुनयना ने देखा, वह साग छोंकते-छोंकते चली आई है। और उसका यह पति है विलक्षण जीव ! वह चुपचाप पालने के पास गई, हल्के-पुल्के दो-एक झोंटे दिये। बात की और जरा देखा और रसोई में चली गई। __ पत्नी के चले जाने पर विनोद-भूषण बड़े दबे-पाँव पालने के पहुँच गये । प्रद्युम्न बेखबर सो रहा था । जैसे हँसते-हँसते सो गया है, मुँह उसका अब भी हँस रहा था । मानों नींद की परी की गोद में वह बड़ा मगन है। ____ मुँह खुला था, बाकी एक तौलिये से ढंका था । और मुँह ऐसा था, गोल-गोल कि बस। और दो लाल-लाल लकीर-सी कलियाँ, उस नन्नीनुन्नी नाक नामक वस्तु के नीचे, हिल-मिलकर मानों खेल रही थीं। वे ओठ चिपटकर बन्द नहीं थे, जरा से खुले थे, जैसे जो ईषत्-स्मित हास्य भीतर से फूटकर बाहर आकर व्याप्त हो गया है, वह निकलते वक्त इन्हें खुला ही छोड़ गया है, बन्द करना भूल गया।
विनोद-भूपण ने धीरे-धीरे अपना हाथ बन्द आँखों की रक्षा करती-हुई पलकों पर फेरा । जैसे उन्हें अपने काम पर आशीर्वाद दे रहे हैं। इस नन्ही-सी जान को ये दो झरोखे मिले हैं, जहाँ से हम उसमें झाँक सकते हैं और जहाँ से यह हमें देखकर पहचान
नामक वीथे, जरासा हो गया है।