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साईकिल द्वार के पास वाली बैठक में ही रख दी, और भीतर आँगन को पार करते-करते चिल्लाए, “ओ रे, काठ के उल्लू !"
सुनयना चौके के काम में लगी थी। वहाँ से भागी।
दहलीज पर पैर रखते ही इन्होंने सामने पाया सुनयना को । फिर चिल्लाने को हुए, “ो रे..."
तभी निगाह पड़ गई सुनयना की उँगली, जो ओठों के आगे होकर हुक्म दे रही थी-चुप ।
यह, अधबीच में ही चुप ।
उँगली वहाँ ओठों की चौकीदारी पर, छण के कितने भाग तक रही? वह वहाँ आ गई और हट गई, और पल का बहुत भाग शेष रहा । उसके हटते ही ओठों के द्वार को खोलकर बन्द बात झट बाहर निकल आई, “हे-हें । चिल्लाश्रो मत । सो रहा है । जग जायगा।"
कैसे कहें, इतने में पल पूरा खर्च हो चुका था।