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चोर
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ही बस्ता फेंक उन के साथ भाग जाना चाहता था। मैंने जैसे-तैसे उसे रोका और फल-मिठाई उसे खिलाने लगी। कहा, "सबेरे से गया, तुझे भूख नहीं लगी, प्रद्युम्न ?”
खाने तो वह लगा; पर मन उसका दोस्तों में था। इतने में आया दिलीप । बोला, "चाची, एक चोर पकड़ा गया है, चोर । बाहर गली में सिपाही उसे ले जा रहे थे। सच्ची, चाची!"
मैंने अनायास कहा, “कहाँ रे ?"
दिलीप कापी-किताब फेंकते हुए बोला, “यह बाहर ही तो गली के बाहर ।"
"तो चलो, होगा ले, अरे खाता क्यों नहीं ?"
लेकिन प्रद्युम्न का मुंह रुक गया था । बरफी का पहला टुकड़ा भी नीचे नहीं उतरा था। वह भूला-सा सामने देखता रह गया था।
"ले खाता क्यों नहीं ? खाकर कहीं जाना।'
परन्तु प्रद्युम्न कुछ देर उसी तरह खोया-सा रहा; फिर एक दम उठ कर वहाँ से भाग छूटा। मैंने तब दिलीप से कहा, "जा भय्या, देख तो, वह कहाँ जा रहा है ?"
दिलीप स्वयं ही जाना चाहता था । इसी से वह भी लपककर भाग गया । आने पर देखा कि दिलीप जितना उल्लसित है, प्रद्युम्न उतना ही चिन्तित दीखता है। मैं दिलीप से पूछने-ताछने लगी
और वह मुझे अपनी सुनी-सुनाई सब बताने लगा। प्रद्युम्न तब बराबर पास खड़ा था। सहसा बीच में वह बोला, "चोर आदमी होता है, माँ ? चोर नहीं होता ?" मैंने कहा, "हाँ बेटा, आदमी ही होता है।" "राक्षस नहीं होता ?"