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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] जाओ।" वह मेरे अंक में लगकर सोने की चेष्टा करने लगा। मैं थोड़ी-थोड़ी देर में उसके पपोटे देखती थी कि सो तो गया है न ? मैंने कहा, "क्यो प्रद्युम्न, नींद नहीं आती ? क्या बात है।" ___ कुछ देर साँस बाँधकर वह लेटा रहा। अन्त में वह रोक नहीं सका, एकाएक बोला, "भाभी, चोर कैसा होता है ?" ।
मैं सुनकर हैरत में रह गई। मैंने कहा, "अरे, वह सचमुच में कुछ थोड़े ही होता है । वह तो झूठ-मूठ की बात है।" __ "तो वह नहीं होता ?" __ मैंने कहा, "बिल्कुल नहीं होता।” सुनकर वह चुप रह गया। मैंने कहा, “सो जाओ, भैया !" ।
उसने जोर से कहा, "होता है।" मैं हँसकर बोली, "तो बताओ, कैसा होता है ?"
बोला, "मेरी किताब में राक्षस की तस्वीर है, वैसा होता है । दो सींग, गदहे के-से कान और लम्बी जीभ ।" ____ मैंने कहा, "हटो, कोई चोर-चोर नहीं होता। किताब में तो यों ही तस्वीरें बनी होती हैं । लो, अब सो जाओ।" कहकर मैं उसे थपथपाने लगी और कुछ देर में वह सो गया। __इस बात को आठ-दस रोज हो गए । प्रद्युम्न की हालत पहले से ठीक है। मैंने सबसे कह दिया है कि प्रद्युम्न के सामने चोर की बात बिल्कुल मुँह से न निकालें । सब इस बात का ध्यान रखती हैं। और मालूम होता है कि चोर प्रद्युम्न के सिर से भी उतरकर भाग-भूग गया है।
दिलीप हमारा भतीजा है और साथ ही रहता है। वह एफ० ए० में पढ़ता है। कालेज दो मील होगा, साइकिल से आता-जाता है। प्रद्युम्न अपने कई साथियों के साथ स्कूल से लौटा था। आते