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जैनधर्म का प्राण
अब हम थोड़े में यह भी देखेंगे कि जैन-सस्कृति का दूसरों पर क्या खास असर पड़ा।
जैन-संस्कृति का दूसरों पर प्रभाव यों तो सिद्धान्तत सर्वभूतदया को सभी मानते है, पर प्राणिरक्षा के ऊपर जितना जोर जैन-परपरा ने दिया, जितनी लगन से उसने इस विषय मे काम किया उसका नतीजा सारे ऐतिहासिक युग मे यह रहा है कि जहाँजहाँ और जब-जब जैन लोगो का एक या दूसरे क्षेत्र मे प्रभाव रहा सर्वत्र आम जनता पर प्राणिरक्षा का प्रबल सस्कार पडा है। यहाँतक कि भारत के अनेक भागो मे अपने को अजैन कहनेवाले तथा जैन-विरोधी समझे जानेवाले साधारण लोग भी जीव-मात्र की हिसा से नफरत करने लगे है। अहिसा के इस सामान्य सस्कार के ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर परपराओ के आचार-विचार पुरानी वैदिक परपरा से बिलकुल जुदा हो गए है। तपस्या के बारे मे भी ऐसा ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थ सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक बल देते रहे है । इसका फल पड़ोसी समाजो पर इतना पड़ा है कि उन्होने भी एक या दूसरे रूप से अनेकविध सात्त्विक तपस्याएँ अपना ली है। और सामान्यरूप से साधारण जनता जैनो की तपस्या की ओर आदरशील रही है। यहाँ तक कि अनेक बार मुसलमान सम्राट् तथा दूसरे समर्थ अधिकारियो ने तपस्या से आकृष्ट होकर जैनसम्प्रदाय का बहुमान ही नहीं किया है, बल्कि उसे अनेक सुविधाएँ भी दी है।
__ मद्य-मास आदि सात व्यसनो को रोकने तथा उन्हे घटाने के लिए जैनवर्ग ने इतना अधिक प्रयत्न किया है कि जिससे वह व्यसनसेवी अनेक जातियों में सुसस्कार डालने में समर्थ हुआ है । यद्यपि बौद्ध आदि दूसरे सम्प्रदाय पूरे बल से इस सुसस्कार के लिए प्रयत्न करते रहे, पर जैनो का प्रयत्न इस दिशा मे आजतक जारी है और जहाँ जैनो का प्रभाव ठीक-ठीक है वहाँ इस स्वरविहार के स्वतन्त्र युग मे भी मुसलमान और दूसरे मांसभक्षी लोग भी खुल्लमखुल्ला मास-मद्य का उपयोग करने मे सकुचाते है । लोकमान्य तिलक ने ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तो मे जो प्राणिरक्षा और निर्मास-भोजन का आग्रह है वह जैन-परपरा का ही प्रभाव है।