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जैनधर्म का प्राण
मे जैनो का आदर्श है निष्कलक मनुष्य की उपासना। पर जैन आचार-विचार मे बहिष्कृत देव-देवियाँ पुन , गौण रूप से ही सही, स्तुति-प्रार्थना द्वारा घुस ही गई, जिसका कि जैन-सस्कृति के उद्देश्य के साथ कोई भी मेल नहीं है। जैन-परपरा ने उपासना मे प्रतीक रूप से मनुष्य मूर्ति को स्थान तो दिया, जोकि उसके उद्देश्य के साथ सगत है, पर साथ ही उसके आसपास शृगार व आडम्बर का इतना सभार आ गया, जोकि निवृत्ति के लक्ष्य के साथ बिलकुल असगत है। स्त्री और शूद्र को आध्यात्मिक समानता के नाते ऊँचा उठाने का तथा समाज मे सम्मान व स्थान दिलाने का जो जैनसस्कृति का उद्देश्य रहा वह यहाँ तक लुप्त हो गया कि न केवल उसने शूद्रो को अपनाने की क्रिया ही बन्द कर दी बल्कि उसने ब्राह्मण-धर्मप्रसिद्ध जाति की दीवारे भी खडी की। यहॉतक कि जहाँ ब्राह्मण-परपरा का प्राधान्य रहा वहाँ तो उसने अपने घेरे मे से भी शूद्र कहलानेवाले लोगों को अजैन कहकर बाहर कर दिया और शुरू मे जैन-सस्कृति जिस जातिभेद का विरोध करने मे गौरव समझती थी उसने दक्षिण-जैसे देशो मे नए जाति-भेद की सृष्टि कर दी तथा स्त्रियो को पूर्ण आध्यात्मिक योग्यता के लिये असमर्थ करार दिया, जोकि स्पष्टत. कट्टर ब्राह्मण-परपरा का ही असर है । मन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याएँ, जिनका जैन-सस्कृति के ध्येय के साथ कोई सबन्ध नही, वे भी जैन-सस्कृति मे आई । इतना ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जीवन स्वीकार करनेवाले अनगारो तक ने उन विद्याओ को अपनाया। जिन यज्ञोपवीत आदि सस्कारो का मूल मे सस्कृति के साथ कोई सबन्ध न था वे ही दक्षिण हिन्दुस्तान मे मध्यकाल मे जैन-सस्कृति का एक अग बन गए और इसके लिए ब्राह्मण-परपरा की तरह जैन-परपरा मे भी एक पुरोहितवर्ग कायम हो गया। यज्ञयागादि की ठीक तरह नकल करने वाले क्रियाकाण्ड प्रतिष्ठा आदि विधियों में आ गए। ये तथा ऐसी दूसरी अनेक छोटी-मोटी बाते इसलिए घटी कि जैन-सस्कृति को उन साधारण अनुयायियों की रक्षा करनी थी जो दूसरे विरोधी सम्प्रदायों मे से आकर उसमे शरीक होते थे या दूसरे सम्प्रदायो के आचार-विचारो से अपने को बचा न सकते थे।