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जैनधर्म का प्राण
पर साथ ही मोक्षवादियो को अपने साध्य मोक्ष-पुरुषार्य के उपाय रूप से किसी सुनिश्चित मार्ग की खोज करना भी अनिवार्य रूप से प्राप्त था। इस खोज की सूझ ने उन्हें एक ऐसा मार्ग, एक ऐसा उपाय सुझाया, जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न था ; वह एकमात्र साधक को अपनी विचार-शुद्धि और वर्तन-शुद्धि पर अवलबित था। यही विचार और वर्तन को आत्यन्तिक शुद्धि का मार्ग निवर्तक-धर्म के नाम से या मोक्ष-मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
हम भारतीय सस्कृति के विचित्र और विविध ताने-बाने की जाच करते है तब हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि भारतीय आत्मवादी दर्शनो मे कर्मकाण्डी मीमासक के अलावा सभी निवर्तक-धर्मवादी है। अवैदिक माने जानेवाले बौद्ध और जैन-दर्शन की सस्कृति तो मूल मे निवर्तक-धर्म स्वरूप है ही, पर वैदिक समझे जानेवाले न्याय-वैशे पिक, साख्य-योग तथा औपनिषद दर्शन की आत्मा भी निवर्तक-धर्म पर ही प्रतिष्ठित है। वैदिक हो या अवैदिक ये सभी निवर्तक-धर्म प्रवर्तक-धर्म को या यज्ञयागादि अनुष्टानो को अन्त मे हेय ही बतलाते है। और वे सभी सम्यक्-ज्ञान या आत्मज्ञान को तथा आत्मज्ञानमूलक अनासक्त जीवनव्यवहार को उपादेय मानते है एव उसीके द्वारा पुनर्जन्म के चक्र से छुट्टी पाना सभत्र बतलाते है।
समाजगामी प्रवर्तक धर्म ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक-धर्म समाजगामी था। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज मे रहकर ही सामाजिक कर्तव्य, जो ऐहिक जीवन से सबन्ध रखते है, और धार्मिक कर्तव्य, जो पारलौकिक जीवन से सबन्ध रखते है, उनका पालन करे । प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही ऋषि-ऋण अर्थात् विद्याध्ययन आदि, पितृ-ऋण अर्थात् सतति-जननादि
और देव-ऋण अर्थात् यज्ञयागादि बन्धनों से आबद्ध है । व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है, पर उसका निर्मूल नाश करना न शक्य और न इष्ट ।