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जैनधर्म का प्राण
न्तर का उच्छेद । प्रवर्तक-धर्म के अनुसार काम, अर्थ और धर्म ये तीन पुरुषार्थ हैं। उसमे मोक्ष नामक चौथे पुरुषार्थ की कोई कल्पना नही है। प्राचीन ईरानी आर्य जो अवेस्ता को धर्मग्रन्थ मानते थे, और प्राचीन वैदिक आर्य, जो मन्त्र और ब्राह्मणरूप वेदभाग को ही मानते थे, वे सब उक्त प्रवर्तकधर्म के अनुयायी है। आगे जाकर वैदिक दर्शनो मे जो मीमांसा-दर्शन नाम से कर्मकाण्डी दर्शन प्रसिद्ध हुआ वह प्रवर्तक-धर्म का जीवित रूप है।
निवर्तक धर्म निवर्तक-धर्म ऊपर सूचित प्रवर्तक-धर्म का बिलकुल विरोधी है । जो विचारक इस लोक के उपरान्त लोकान्तर और जन्मान्तर मानने के साथसाथ उस जन्मचक्र को धारण करनेवाली आत्मा को प्रवर्तक-धर्मवादियों की तरह तो मानते ही थे, पर साथ ही वे जन्मान्तर मे प्राप्य उच्च, उच्चतर ओर चिरस्थायी सुख से सन्तुष्ट न थे, उनकी दृष्टि यह थी कि इस जन्म या जन्मान्तर मे कितना ही ऊँचा सुख क्यो न मिले, वह कितने ही दीर्घकाल तक क्यो न स्थिर रहे, पर अगर वह सुख कभी-न-कभी नाश पानेवाला हे तो फिर वह उच्च और चिरस्थायी सुख भी अत मे निकृष्ट सुख की कोटि का होने से उपादेय हो नहीं सकता। वे लोग ऐसे किसी सुख की खोज मे थे जो एक बार प्राप्त होने के बाद कभी नष्ट न हो। इस खोज की सूझ ने उन्हे मोक्ष पुरुपार्थ मानने के लिए बाधित किया। वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्मा की स्थिति सभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्मजन्मान्तर या देहवारण करना नही पडता। वे आत्मा की उस स्थिति को मोक्ष या जन्म-निवृत्ति कहते थे। प्रवर्तक-धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनुष्ठानो से इस लोक तथा परलोक के उत्कृष्ट सुखो के लिए प्रयत्न करते थे उन धार्मिक अनुष्ठानों को निवर्तक-धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए न केवल अपर्याप्त ही समझते, बल्कि वे उन्हें मोक्ष पाने मे बाधक समझकर उन सब धार्मिक अनुष्ठानों को आत्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व-पश्चिम जितना अन्तर होने से प्रवर्तक-धर्मानुयायियो के लिए जो उपादेय था वही निवर्तक-धर्मानुयायियों के लिए हेय बन गया। यद्यपि मोक्ष के लिए प्रवर्तक-धर्म बाधक माना गया,