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जैनधर्म का प्राण
साधनगत साम्य पर भी उतना ही भार देने लगा । निःश्रेयस के साधनो मे मुख्य है अहिंसा | किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार से हिसा न करना श्रेयस का मुख्य साधन है, जिसमे अन्य सब साधनो का समावेश हो जाता है। यह साधनगत साम्यदृष्टि हिसाप्रधान यज्ञयागादि कर्म की दृष्टि से बिलकुल विरुद्ध है । इस तरह ब्राह्मण और श्रमणधर्म का वैषम्य और साम्यमूलक इतना विरोध है कि जिससे दोनो धर्मों के बीच पद-पद पर संघर्ष की सभावना है, जो सहस्रों वर्षों के इतिहास मे लिपिबद्ध है । यह पुराना विरोध ब्राह्मणकाल मे भी था और बुद्ध एव महावीर के समय मे तथा इसके बाद भी । इसी चिरतन विरोध के प्रवाह को महाभाष्यकार पतजलि ने अपनी वाणी मे व्यक्त किया है । वैयाकरण पाणिनि ने सूत्र मे शाश्वत विरोध का निर्देश किया है । पतजलि 'शाश्वत' - जन्मसिद्ध विरोधवाले अहि-नकुल, गोव्याघ्र जैसे द्वन्द्वो के उदाहरण देते हुए साथ-साथ ब्राह्मण श्रमण का भी उदाहरण देते है ।' यह ठीक है कि हज़ार प्रयत्न करने पर भी अहि-नकुल या गो-या का विरोध निर्मूल नही हो सकता, जबकि प्रयत्न करने पर ब्राह्मण और श्रमण का विरोध निर्मूल हो जाना सभव है और इतिहास मे कुछ उदाहरण ऐसे उपलब्ध भी है, जिनमे ब्राह्मण और श्रमण के बीच किसी भी प्रकार का वैमनस्य या विरोध देखा नही जाता । परन्तु पतजलि का ब्राह्मणश्रमण का शाश्वत विरोध विषयक कथन व्यक्तिपरक न होकर वर्गपरक है । कुछ व्यक्ति ऐसे सभव है जो ऐसे विरोध से पर हुए हो या हो सकते हो, परन्तु सारा ब्राह्मणवर्ग या सारा श्रमणवर्ग मौलिक विरोध से पर नही है, यही पतजलि का तात्पर्य है । 'शाश्वत' शब्द का अर्थ अविचल न होकर प्रावाहिक इतना ही अभिप्रेत है । पतजलि से अनेक शताब्दियो के बाद होनेवाले जैन आचार्य हेमचंद्र ने भी ब्राह्मण-श्रमण का उदाहरण देकर पतजलि के अनुभव की यथार्थता पर मुहर लगाई है।' आज इस समाजवादी युग में भी हम यह नही कह सकते कि ब्राह्मण और श्रमणवर्ग के बीच विरोध का बीज निर्मूल हुआ है । इस सारे विरोध की जड ऊपर सूचित वैषम्य और साम्य की दृष्टि का पूर्व-पश्चिम जैसा अन्तर ही है ।
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१. महाभाष्य २.४.९ ।
२. सिद्ध हैम ० ३ १. १४१ ।