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जैनधर्म का प्राण
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प्रकट होता है और कोई किसीसे कम योग्य या अधिक योग्य रहने नहीं पाता । जीव जगत् के प्रति श्रमणधर्म की दृष्टि पूर्ण आत्मसाम्य की है, जिसमे न केवल पशु-पक्षी आदि या कीट-पतंग आदि जन्तु का ही समावेश होता है, अपितु वनस्पति जैसे अति क्षुद्र जीववर्ग का भी समावेश होता है । इसमें किसी भी देहधारी का किसी भी निमित्त से किया जानेवाला वघ आत्मवध जैसा ही माना गया है और वघमात्र को अधर्म का हेतु माना है । ब्राह्मण परम्परा मूल में 'ब्रह्मन्' के आसपास शुरू और विकसित हुई है, जबकि श्रमण परम्परा 'सम' - साम्य, राम और श्रम के आसपास शुरू एव विकसित हुई है । ब्रह्मन् के अनेक अर्थों मे से प्राचीन दो अर्थ इस जगह ध्यान देने योग्य है - (१) स्तुति, प्रार्थना, (२) यज्ञयागादि कर्म । वैदिक मंत्रो एव सूक्तो के द्वारा जो नानाविध स्तुतिया और प्रार्थनाएँ की जाती है वे ब्रह्मन् कहलाती हैं । इसी तरह वैदिक मंत्रों के विनियोगवाला यज्ञयागादि कर्म भी ब्रह्मन् कहलाता है । वैदिक मंत्रो और सूक्तो का पाठ करनेवाला पुरोहितवर्ग और यज्ञयागादि कर्म करानेवाला पुरोहितवर्ग ही ब्राह्मण है । वैदिक मंत्रो के द्वारा की जानेवाली स्तुति - प्रार्थना एव यज्ञयागादि कर्म की अतिप्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ पुरोहितवर्ग का समाज में एव तत्कालीन धर्म मे ऐसा प्राधान्य स्थिर हुआ कि जिससे वह ब्राह्मण वर्ग अपने-आपको जन्म से ही श्रेष्ठ मानने लगा और समाज मे भी बहुधा वही मान्यता स्थिर हुई, जिसके आधार पर वर्गभेद की मान्यता रूढ हुई और कहा गया कि समाज-पुरुष का मुख ब्राह्मण है और इतर वर्ण अन्य अग है । इसके विपरीत श्रमणधर्म यह मानता - मनवाता था कि सभी स्त्री-पुरुष सत्कर्म एव धर्मपद के समानरूप से अधिकारी है । जो प्रयत्नपूर्वक योग्यता लाभ करता है वह वर्ग एव लिंगभेद के बिना ही गुरुपद का अधिकारी बन सकता है ।
यह सामाजिक एव धार्मिक समता की मान्यता जिस तरह ब्राह्मणधर्म की मान्यता से बिलकुल विरुद्ध थी, उसी तरह साध्यविषयक दोनो की मान्यता भी परस्पर विरुद्ध रही । श्रमणधर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय को सर्वथा हेय मानकर निःश्रेयस को ही एकमात्र उपादेय मानने की ओर अग्रसर था और इसीलिए वह साध्य की तरह