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जैनधर्म का प्राण
ब्राह्मण और श्रमण परम्परा : वैषम्य और साम्य दृष्टि
अभी जैनधर्म नाम से जो आचार-विचार पहचाना जाता है वह भगवान् पार्श्वनाथ के समय मे, खासकर महावीर के समय मे, निग्गठ धम्मनिर्ग्रन्थ धर्म के नाम से भी पहचाना जाता था, परन्तु वह श्रमणधर्म भी कहलाता है । अतर है तो इतना ही है कि एकमात्र जैनधर्म ही श्रमणधर्म नही है, श्रमणधर्म की और भी अनेक शाखाएँ भूतकाल मे थी और अब भी बौद्ध आदि कुछ शाखाएँ जीवित है । निर्ग्रन्थ धर्म या जैनधर्म मे श्रमणधर्म के सामान्य लक्षणो के होते हुए भी आचार-विचार की कुछ ऐसी विशेषताएँ है जो उसको श्रमणधर्म की अन्य शाखाओ से पृथक् करती है । जैनधर्म के आचार-विचार की ऐसी विशेषताओ को जानने के पूर्व अच्छा यह होगा कि हम प्रारभ मे ही श्रमणधर्म की विशेषताओ को भलीभाँति जान ले, जो उसे ब्राह्मणधर्म से अलग करती है ।
प्राचीन भारतीय सस्कृति का पट अनेक व विविधरगी है, जिसमे अनेक धर्म-परपराओ के रङ्ग मिश्रित है । इसमे मुख्यतया ध्यान मे आनेवाली दो धर्म-परम्पराएँ है - ( १ ) ब्राह्मण, (२) श्रमण । इन दो परम्पराओ के पौर्वापर्य तथा स्थान आदि विवादास्पद प्रश्नो को न उठाकर केवल ऐसे मुद्दो पर थोडी-सी चर्चा की जाती है, जो सर्वसमत जैसे है तथा जिनसे श्रमधर्म की मूल भित्ति को पहचानना और उसके द्वारा निर्ग्रन्थ या जैनधर्म को समझना सरल हो जाता है ।
ब्राह्मण और श्रमण परम्पराओ के बीच छोटे-बड़े अनेक विषयो में मौलिक अतर है, पर उस अंतर को संक्षेप में कहना हो तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि ब्राह्मण - वैदिक परम्परा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है, जबकि श्रमण परम्परा