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जैनधर्म का प्राण
के परिणामस्वरूप चेतन पर छाये हुए अज्ञान एव राग-द्वेषादि के आवरणो को चारित्र के सम्यक् पुरुषार्थ से हटाने की शक्यता के चारित्रलक्षी तत्त्व मे श्रद्धा रखना सम्यग्दृष्टि अथवा आस्तिकता है । इससे विपरीत अर्थात् चेतनतत्त्व मे अथवा चारित्रलक्षी तत्त्व मे श्रद्धा न रखना मिथ्यादृष्टि अथवा नास्तिकता है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का अर्थ, विकासक्रम को देखते हुए, अनुक्रम से तत्त्व-विषयक श्रद्धा और अश्रद्धा ऐसा ही फलित होता है । वाचक उमास्वाति नामक जैन आचार्य ने सम्यग्दृष्टि का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि आध्यात्मिक और चारित्रलक्षी तत्त्वो मे श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है । हम देखते है कि इस परिभाषा मे किसी एक परम्परा के बाह्य आचार-विचार की प्रणालिकाओ का स्पर्श तक नही है। केवल तत्त्व के वास्तविक स्वरूप मे श्रद्धा रखने का ही निर्देश है।
तत्त्वश्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नही है । अन्तिम अर्थ तो तत्त्वसाक्षात्कार है, तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्वसाक्षात्कार का एक सोपान मात्र है। वह सोपान दृढ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है; तब साधक जीवनमात्र मे चेतनतत्त्व का समान भाव से अनुभव करता है और चारित्रलक्षी तत्त्व केवल श्रद्धा के विषय न रहकर जीवन मे ताने-बाने की तरह ओत-प्रोत हो जाते है, एकरस हो जाते है। इसी का नाम है तत्त्वसाक्षात्कार और यही सम्यग्दृष्टि शब्द का अन्तिम तथा एकमात्र अर्थ है।
(द० अ० चि० भा० १, प० ९८-१०६)