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जैनधर्म का प्राण
कोई छोटा या बड़ा प्राणधारी अकेले अपने-आपमे जीना चाहे तो जी नही सकता और वैसा जीवन बिता भी नही सकता । वह अपने छोटे-बडे सजातीय दल का आश्रय लिये बिना चैन नही पाता । जैसे वह अपने दल मे रहकर उसके आश्रय से सुखानुभव करता है वैसे ही यथावसर अपने दल के अन्य व्यक्तियो को यथासंभव मदद देकर भी सुखानुभव करता है । यह वस्तुस्थिति चीटी, भौरे और दीमक जैसे क्षुद्र जन्तुओ के वैज्ञानिक अन्वेषको ने विस्तार से दरसाई है । इतने दूर न जानेवाले सामान्य निरीक्षक भी पक्षियों और बन्दर जैसे प्राणियो मे देख सकते है कि तोता, मैना, कौआ आदि पक्षी केवल अपनी सतति के ही नही, बल्कि अपने सजातीय दल के सकट के समय भी उसके निवारणार्थ मरणात प्रयत्न करते है और अपने दल का आश्रय किस तरह पसद करते है । आप किसी बन्दर के बच्चे को पकड़िए, फिर देखिए कि केवल उसकी माँ ही नही, उस दल के छोटे-बडे सभी बन्दर उसे बचाने का प्रयत्न करते है । इसी तरह पकड़ा जानेवाला बच्चा केवल अपनी माँ की ही नही अन्य बन्दरो की ओर भी बचाव के लिए देखता है । पशु-पक्षियो की यह रोजमर्रा की घटना है तो अतिपरिचित और बहुत मामूली-सी, पर इसमे एक सत्य सूक्ष्मरूप से निहित है ।
वह सत्य यह है कि किसी प्राणधारी की जिजीविषा उसके जीवन से अलग नही हो सकती और जिजीविषा की तृप्ति तभी हो सकती है, जब प्राणधारी अपने छोटे-बडे दल मे रहकर उसकी मदद ले और मदद करे । जिजीविषा के साथ अनिवार्य रूप से सकलित इस सजातीय दल से मदद लेने के भाव मे ही धर्म का बीज निहित है । अगर समुदाय मे रहे बिना और उससे मदद लिए बिना जीवनधारी प्राणी की जीवनेच्छा तृप्त होती, तो धर्म का प्रादुर्भाव संभव ही न था । इस दृष्टि से देखने पर कोई सन्देह नही रहता कि धर्म का बीज हमारी जिजीविषा मे है और वह जीवन - विकास की प्राथमिक-से-प्राथमिक स्थिति मे भी मौजूद है, चाहे वह अज्ञान या अव्यक्त अवस्था ही क्यो न हो ।
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हरिण जैसे कोमल स्वभाव के ही नही, बल्कि जगली भैसो तथा गैण्डों जैसे कठोर स्वभाव के पशुओ मे भी देखा जाता है कि वे सब अपना-अपना दल बाँधकर रहते और जीते है । इसे हम चाहे आनुवंशिक सस्कार मानें