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जैनधर्म का प्राण
अथवा संस्कृति चरितार्थ होती है । धर्म, सस्कृति एव तत्त्वज्ञान की विकृत समझ दूर करने और सदियो - पुराने वहमो का उन्मूलन करने के लिए भी संस्कृति की सही और गहरी समझ आवश्यक है ।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ७ )
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२. तत्त्वज्ञान और धर्म का सम्बन्ध
तत्त्वज्ञान अर्थात् सत्यशोधन के प्रयत्न मे से फलित हुए और फलित होनेवाले सिद्धान्त, धर्म अर्थात वैसे सिद्धान्तो के अनुसार निर्मित वैयक्तिक और सामूहिक जीवनव्यवहार । यह सच है कि एक ही व्यक्ति अथवा समूह की योग्यता तथा शक्ति सदा एक-सी नही होती । उसकी भूमिका और अधिकारभेद के अनुसार धर्म मे अन्तर आयेगा, इतना ही नही, धर्माचरण मे अधिक पुरुषार्थ की अपेक्षा रहने से वह गति मे तत्त्वज्ञान के पीछे ही रहेगा । फिर भी इन दोनो की दिशा ही मूलत भिन्न हो तो तत्त्वज्ञान चाहे जितना गहरा और चाहे जितना सत्य हो तथापि धर्म उसके प्रकाश से वचित रहेगा । इसके परिणामस्वरूप मानवता का विकास अवरुद्ध हो जायेगा । तत्त्वज्ञान की शुद्धि, वृद्धि और परिपाक जीवन मे धर्म को उतारे बिना सम्भव नही है । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के अवलम्बन से रहित धर्म जडता और वहम से मुक्त नही हो सकता । अतएव दोनो के बीच यदि दिशाभेद हो तो वह घातक है ।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० २०२ )
३. धर्म का बीज
धर्म का बीज क्या है और उसका प्रारंभिक स्वरूप क्या है ? हम सभी अनुभव करते है कि हममे जिजीविषा है । जिजीविषा केवल मनुष्य, पशुपक्षी तक ही सीमित नही है, वह तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म कीट, पतग और बेक्टेरिया जैसे जतुओ मे भी है । जिजीविषा के गर्भ मे ही सुख की ज्ञात, अज्ञात अभिलाषा अनिवार्य रूप से निहित है । जहाँ सुख की अभिलाषा है, वहाँ प्रतिकूल वेदना या दुख से बचने की वृत्ति भी अवश्य रहती है । इस जिजीविषा, सुखाभिलाषा और दुख के प्रतिकार की इच्छा मे ही धर्म का बीज निहित है ।