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________________ 214 जैनधर्म का प्राण वैसा ही व्यवहार करते हैं। सघों में केवल गृहस्थ ही नहीं आते, त्यागी भी आते है; पुरुष ही नही, स्त्रियाँ भी आती हैं। सघ यानी केवल एक फिर्के, एक गच्छ, एक आचार्य या एक उपाश्रय के ही अनुयायी नही, परन्तु जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक जैन / और, जैनों को केवल जैन परम्परावालो के साथ ही जीवन बिताना पड़ता है ऐसा नही है; उनको दूसरो के साथ भी उतना ही काम पड़ता है और यदि भूल हो तो वह जैसे आपस-आपस मे होती है वैसे दूसरों के साथ भी होती है। अतएव भूल-स्वीकार और क्षमा करने-कराने की प्रथा का रहस्य केवल जैन परम्परा मे ही परिसमाप्त नही होता, परन्तु वास्तव में तो वह रहस्य समाजव्यापी क्षमापना मे सन्निहित है। वह यहाँ तक कि ऐसी प्रथा का अनुसरण करनेवाला जैन सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अगम्य जीववर्ग से भी क्षमायाचना करता है-सज्ञान अथवा अज्ञानभाव से उसकी कोई भूल हुई हो तो वह क्षमा मांगता है। ___ वस्तुतः इस प्रथा के पीछे दृष्टि तो दूसरी है और वह यह कि जो मनुष्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव के प्रति भी कोमल बनने के लिए तैयार हो उसे तो सर्वप्रथम जिसके साथ मनमुटाव हुआ हो, जिसके प्रति कटुता पैदा हुई हो, एकदूसरे की भावना को चोट पहुँची हो उसके साथ क्षमा ले-देकर मन स्वच्छ करना चाहिए। (द० अ० चि० भा० 1, पृ० 354-356)
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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