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जैनधर्म का प्राण
प्रवाह भिन्न-भिन्न रूप से पोषित होने के कारण उनके स्थूल रूपो मे मग्न रहनेवाले अनुयायी दोनों प्रवाहो का समीकरण देख नही सकते, परन्तु वह तथ्य तो अबाधित है। उसे देखनवाले प्रतिभावान पुरुष समय-समय पर अवतीर्ण होते रहे है और वह भी सभी परम्पराओ मे। ___ समत्व का मुद्रालेख होने पर भी जैन और बौद्ध जैसी श्रमण परम्पराओं में ब्रह्मचर्य और ब्रह्मविहार शब्द इतने अधिक प्रचलित है कि उनको इन परम्पराओ से अलग किया ही नही जा सकता। इसी प्रकार ब्रह्मतत्त्व का मुद्रालेख धारण करनेवाले वर्ग मे भी 'सम' पद ऐसा तो एकरस हो गया है कि उसको ब्रह्मभाव या ब्राह्मी स्थिति से अलग किया ही नही जा सकता। __ प्राचीन काल से चली आनेवाली इस परमार्थदृष्टि का उत्तर काल मे भी सतत पोषण होता रहा है। इसीलिए जन्म से ब्राह्मण परन्तु सम्प्रदाय से बौद्ध वसुबन्धु ने अभिधर्मकोष मे स्पष्ट कहा है कि 'श्रामण्यममलो मार्गः ब्राह्मण्यमेव तत् ।' उसके ज्येष्ठ बन्धु असग ने भी वैसे ही अभिप्राय की सूचना अन्यत्र कही की है।
परमार्थदृष्टि की यह परम्परा साम्प्रदायिक माने जानेवाले नरसिह महेता में भी व्यक्त हुई है। समग्र विश्व मे व्याप्त एक तत्त्व के रूप मे हरि का कीर्तन करने के पश्चात् उन्होने उस हरि के भक्त वैष्णवजन का एक लक्षण 'समदृष्टि ने तष्णात्यागी' (समदष्टि और तृष्णात्यागी) भी कहा है । इसी प्रकार साम्प्रदायिक समझे जानेवाले उपाध्याय यशोविजयजी ने भी कहा है कि समत्व प्राप्त करना ही ब्रह्मपद की प्राप्ति है। ____इस परमार्थ और व्यवहारदृष्टि का भेद तथा परमार्थदृष्टि की यथार्थता डॉ० आनन्दशकर बी० ध्रुव ने भी बताई है। एक ब्राह्मणी के हाथ के भोजन का उन्होने स्वीकार नहीं किया, तब उन्होने कहा कि यह तो मेरा एक कुटुम्बगत नागर-सस्कार है । उसकी वास्तविकता मै तर्कसिद्ध नही मानता; मात्र सस्कार का अनुसरण करता हूँ इतना ही। सही दृष्टि का निर्देश उन्होने अन्यत्र किया है। जैन आगम सूत्रकृताग की प्रस्तावना मे उन्होने कहा है कि, "जैन (श्रमण) हुए बिना 'ब्राह्मण' नही हुआ जाता, और 'ब्राह्मण' हुए बिना 'जैन' नही हुआ जाता । तात्पर्य यह कि जैनधर्म