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जैनधर्म का प्राण
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अपने-अपने ढंग से एक ही परम तत्त्व का स्पर्श करते है ऐसा प्रतिपादन किया जाय तो वह किस दृष्टि से ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण किये बिना तत्त्वजिज्ञासा सन्तुष्ट नही हो सकती ।
वह दृष्टि है परमार्थ की। परमार्थदृष्टि कुल, जाति, वंश, भाषा, क्रियाकाड और वेश आदि के भेदो का अतिक्रमण कर वस्तु के मूलगत स्वरूप को देखती है, अर्थात् वह स्वाभाविक रूप से अभेद अथवा समता की ओर ही उन्मुख होती है । व्यवहार मे पैदा होनेवाले भेद और विरोध का प्रवर्तन सम्प्रदायो और उनके अनुयायियों में ही होता है और कभी-कभी उसमें से सघर्ष भी पैदा होता है। ऐसे सघर्ष के सूचक ब्राह्मण-श्रमण वर्गो के भेदो का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थो मे आता है, परन्तु उसके साथ ही परमार्थदृष्टिसम्पन्न प्राज्ञ पुरुषो ने जो ऐक्य देखा था या अनुभव किया था उसका निर्देश भी अनेक परम्पराओ के अनेक शास्त्रो मे आता है। जैन आगम, जिनमें ब्राह्मण और श्रमण वर्ग के भेद का निर्देश है, उन्ही में सच्चे ब्राह्मण और सच्चे श्रमण का समीकरण उपलब्ध होता है । वौद्ध पिटको मे भी वैसा ही समीकरण आता है। वनपर्व मे अजगर के रूप मे अवतीर्ण नहुप ने सच्चा ब्राह्मण कोन ऐसा प्रश्न युधिष्ठिर से पूछा है । इसके उत्तर मे युधिष्ठिर के मुख से महर्षि व्यास ने कहा है कि प्रत्येक जन्म लेनेवाला व्यक्ति सकर प्रजा है। मनु के शब्दों का उद्धरण देकर व्यास ने समर्थन किया है कि प्रजामात्र सकरजन्मा है, ओर सद्वृत्तवाला शूद्र जन्मजात ब्राह्मण से भी उत्तम है । व्यक्ति मे सच्चरित्र एवं प्रज्ञा हो तभी वह सच्चा ब्राह्मण बनता है । यह हुई परमार्थदृष्टि । गीता में ब्रह्म पद का अनेकवा उल्लेख आता है; साथ ही सम शब्द भी उच्च अर्थ मे मिलता है । पण्डिता समदर्शिनः -- यह वाक्य तो बहुत प्रसिद्ध है । सुत्तनिपात नाम के बौद्ध ग्रन्थ मे एक परमट्ठसुत्त है । उसमे भारपूर्वक कहा है कि दूसरे हीन या झूठे और मै श्रेष्ठ - यह परमार्थदृष्टि नही है ।
गंगा एव ब्रह्मपुत्रा के प्रभवस्थानभिन्न, परन्तु उनका मिलनस्थान एक । ऐसा होने पर भी दोनो महानदियों के प्रवाह भिन्न, किनारे पर की बस्तियाँ भिन्न, भाषा और आचार भी भिन्न । ऐसी जुदाई मे लीन रहनेवाले मिलनस्थान की एकता देख नही सकते । फिर भी वह एकता तो सत्य ही है । इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रभवस्थानों से उत्पन्न होनेवाले विचार -