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जैनधर्म का प्राण
१९५ भारतीय तथा पाश्चात्य तत्त्वज्ञान की सब शाखाओ के पारदर्शी विद्वान् और खास कर शाकर वेदान्त के विशेष पक्षपाती रहे-उन्होने अपने 'जैन अने ब्राह्मण'' भाषण मे स्पष्ट कहा है कि सप्तभगी यह कोई सशयज्ञान नही है; वह तो सत्य के नानाविध स्वरूपो की निदर्शक एक विचारसरणी है। श्री नर्मदाशकर मेहता, जो भारतीय समग्र तत्त्वज्ञान की परम्पराओं और खासकर वेद-वेदान्त की परम्परा के असाधारण मौलिक विद्वान् थे ओर जिन्होने 'हिन्द तत्त्वज्ञान नो इतिहास आदि अनेक अभ्यासपूर्ण पुस्तकें लिखी है, उन्होने भी सप्तभगी का निरूपण बिल्कुल असाम्प्रदायिक दृष्टि से किया है, जो पठनीय है । सर राधाकृष्णन्, डॉ० दासगुप्ता आदि तत्त्वचिन्तको ने भी सप्तभगी का निरूपण जैन दृष्टिकोण को बराबर समझ कर ही किया है।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० ५०३-५०४
१. आपणो धर्म, पृ० ६७३। २. पृ० २१३-२१९ । ३. राधाकृष्णन् : इण्डियन फिलॉसॉफी, वॉल्यूम १, पृ० ३०२ । ४. दासगुप्ता : ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसॉफी वॉल्यूम १, पृ०
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