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जैनधर्म का प्राण
'अवक्तव्य' के अर्थ के विषय में कुछ विचारणा शुरू के चार भगो मे एक 'अवक्तव्य' नाम का भग भी है। उसके अर्थ के बारे मे कुछ विचारणीय बात है। आगमयुग के प्रारम्भ मे अबक्तव्य भंग का अर्थ ऐसा किया जाता है कि सत्-असत् या नित्य-अनित्य आदि दो अगो को एक साथ प्रतिपादन करनेवाला कोई शब्द ही नही, अतएव ऐसे प्रतिपादन की विवक्षा होने पर वस्तु अवक्तव्य है। परन्तु अवक्तव्य शब्द के इतिहास को देखते हुए कहना पड़ता है कि उसकी दूसरी व ऐतिहासिक व्याख्या पुराने शास्त्रो मे है।
उपनिषदो मे 'यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह" इस उक्ति के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को अनिर्वचनीय अथवा वचनागोचर सूचित किया है। इसी तरह 'आचाराग' मे भी 'सव्वे सरा निअट्टति, तत्थ झुणी न विज्जई आदि द्वारा आत्मा के स्वरूप को वचनागोचर कहा है। बुद्ध ने भी अनेक वस्तुओ को अव्याकृत' शब्द के द्वारा वचनागोचर ही सूचित किया है।
जैन परम्परा मे तो अनभिलाप्य भाव प्रसिद्ध है, जो कभी वचनगोचर नहीं होते। मैं समझता हूँ कि सप्तभगी मे अवक्तव्य का जो अर्थ लिया जाता है वह पुरानी व्याख्या का वादाश्रित व तर्कगम्य दूसरा रूप है।
सप्तभंगी संशयात्मक ज्ञान नहीं है सप्तभगी के विचारप्रसग मे एक बात का निर्देश करना जरूरी है। श्रीशकराचार्य के 'ब्रह्मसूत्र' २-२-३३ के भाष्य मे सप्तभगी को संशयात्मक ज्ञान रूप से निर्दिष्ट किया है । श्रीरामानुजाचार्य ने भी उन्ही का अनुसरण किया है। यह हुई पुराने खण्डन-मण्डनप्रधान साम्प्रदायिक युग की बात । पर तुलनात्मक और व्यापक अध्ययन के आधार पर प्रवृत्त हुए नए युग के विद्वानो का विचार इस विषय में जानना चाहिए। डॉ० ए० बी० ध्रुव, जो
१. तैत्तिरीय उपनिषद् २-४ । २. आचाराग सू० १७०। ३. मज्झिमनिकाय सुत्त ६३ । ४. विशेषावश्यकभाष्य १४१, ४८८ ।