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अनेकान्तवाद
अनेकान्त जैन सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धान्त है, जो तत्त्वज्ञान और धर्म दोनो विषयो मे समान रूप से मान्य हुआ है। अनेकान्त और स्याद्वाद ये दोनों शब्द इस समय सामान्यतः एक ही अर्थ मे प्रयुक्त होते है । केवल जैन ही नही, परन्तु समझदार जैनेतर लोग भी जैनदर्शन और जैन सम्प्रदाय को अनेकान्तदर्शन अथवा अनेकान्तसम्प्रदाय के रूप मे जानते है। सर्वदा से जैन अपनी अनेकान्त-विषयक मान्यता को एक अभिमान की वस्तु मानते आये है और उसकी भव्यता, उदारता तथा सुन्दरता का स्थापन करते आये है। यहाँ हमे देखना है कि यह अनेकान्त क्या है।
अनेकान्त का सामान्य विवेचन अनेकान्त एक प्रकार की विचारपद्धति है। वह सर्व दिशाओं मे और सब बाजुओ में विचरण करनेवाला एक बन्धनमुक्त मानसचक्षु है । ज्ञान के, विचार के और आचरण के किसी भी विषय को वह मात्र एक टूटे या अपूर्ण पहलू से देखने से इन्कार करता है और शक्य हो उतने अधिकाधिक पहलुओ से, अधिकाधिक ब्योरो से और अधिकाधिक मार्मिकतापूर्वक सबकुछ सोचने-समझने और आचरण करने का उसका पक्षपात है। उसका यह पक्षपात भी सत्य की नीव पर आधारित है । अनेकान्त की सजीवता अथवा जीवन यानी उसके आगे, पीछे या भीतर सर्वत्र सत्य का-यथार्थता का प्रवाह । अनेकान्त मात्र कल्पना नहीं है, परन्तु सत्यसिद्ध कल्पना होने से वह तत्त्वज्ञान है और विवेकी आचरण का विषय होने से धर्म भी है। अनेकान्त की सजीवता इसी मे है कि वह जिस प्रकार दूसरे विषयों को तटस्थ भाव से देखने, विचारने और अपनाने के लिए प्रेरित करता है, उसी