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जैनधर्म का प्राण
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उस मरीज को कष्ट अवश्य होता है, हितैषी माता-पिता नासमझ लडके को जब उसकी इच्छा के विरुद्ध पढाने के लिए यत्न करने है तब उस बालक को दुख-सा मालूम पडता है। पर इतने ही से न तो वह चिकित्सक अनुचित काम करनेवाला माना जाता है और न हितैषी माता-पिता ही दोषी समझे जाते हैं। इसके विपरीत जब कोई, भोले लोगों को ठगने के इरादे से या और किसी तुच्छ आशय से दान, पूजन आदि क्रियाओं को करता है तब वह पुण्य के बदले पाप बाँधता है । अतएव पुण्य-बन्ध या पाप-बन्ध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर की क्रिया नही है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्त्ता का आगय ही है ।
यह पुण्य पाप की कसौटी सब को एक-सी सम्मत है, क्योकि यह सिद्धांत सर्वमान्य है कि - 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।'
सच्ची निर्लेपता, कर्म का बन्धन कब न हो ?
साधारण लोग यह समझ बैठते है कि अमुक काम न करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप न लगेगा। इससे वे उस काम को तो छोड देते है, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नही छूटती । इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के लेप से अपने को मुक्त नही कर सकते । अतएव विचारना चाहिए कि सच्ची निर्लेपता क्या ? लेप (बन्ध ) मानसिक क्षोभ को अर्थात् कषाय को कहते है । यदि कषाय नही है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन मे रखने के लिए समर्थ नही है । इससे उलटा यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है, तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुडा नही सकता । कषाय-रहित वीतराग सब जगह जल मे कमल की तरह निर्लेप रहते है, पर कषायवान् आत्मा योग का स्वॉग रचकर भी तिलभर शुद्धि नही कर सकता । इसीसे यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धक नही होता । मतलब सच्ची निर्लेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है । यही शिक्षा कर्मशास्त्र से मिलती है और यही बात अन्यत्र भी कही हुई है :
मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयसगि मोक्षे' निर्विषय स्मृतम् ॥' - मैत्र्युपनिषद्