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जैनधर्म का प्राण
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मिलते है-माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, सस्कार, दैव, भाग्य आदि । __माया, अविद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्त दर्शन में पाए जाते है। इनका मूल अर्थ करीब-करीब वही है, जिसे जैन-दर्शन में भाव-कर्म कहते है। 'अपूर्व' शब्द मीमासादर्शन मे मिलता है। 'वासना' शब्द बौद्धदर्शन मे प्रसिद्ध है, परन्तु योगदर्शन मे भी उसका प्रयोग किया गया है। 'आशय' शब्द विशेष कर योग तथा साख्य दर्शन मे मिलता है। धर्माधर्म, अदृष्ट और सस्कार, इन शब्दो का प्रयोग और दर्शनो में भी पाया जाता है, परन्तु विशेषकर न्याय तथा वैशेषिक दर्शन मे । दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि कई ऐसे शब्द है जो सब दर्शनो के लिए साधारण-से हैं। जितने दर्शन आत्मवादी है और पुनर्जन्म मानते है उनको पुनर्जन्म की सिद्धि-उपपत्ति के लिए कर्म मानना ही पड़ता है।
कर्म का स्वरूप मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणो से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही 'कर्म' कहलाता है। कर्म का यह लक्षण उपर्यक्त भावकर्म व द्रव्यकर्म दोनो में घटित होता है, क्योकि भावकर्म आत्मा का या जीव का--वैभाविक परिणाम है, इससे उसका उपादान रूप का जीव ही है और द्रव्यकर्म, जो कि कार्मण-जाति के सूक्ष्म पुद्गलो का विकार है, उसका भी कर्ता, निमित्तरूप से, जीव ही है। भावकर्म के होने मे द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त । इस प्रकार उन दोनो का आपस मे बीजाङकुर की तरह कार्यकारण भाव सबन्ध है।
पुण्य-पाप की कसौटी साधारण लोग कहा करते है कि 'दान, पूजन, सेवा आदि क्रियाओं के करने से शुभ कर्म का (पुण्य का) बन्ध होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने, इच्छा-विरुद्ध काम करने आदि से अशुभ कर्म का (पाप का) बन्ध होता है, परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी यह नही है ।
एक परोपकारी चिकित्सक जब किसी पर शस्त्रक्रिया करता है तब