SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : १२ : कर्मतत्त्व कर्मवादियो का ऐसा सिद्धान्त है कि जीवन केवल वर्तमान जन्म मे ही पूरा नही होता, वह तो पहले भी था और आगे भी चलता रहेगा। कोई भी अच्छा या बुरा, स्थूल या सूक्ष्म, शारीरिक या मानसिक परिणाम जीवन मे ऐसा उत्पन्न नहीं होता, जिसका बीज उस व्यक्ति ने वर्तमान अथवा पूर्वजन्म मे बोया न हो। कर्मवाद को दीर्घ दृष्टि ऐसा एक भी स्थूल या सूक्ष्म, मानसिक, वाचिक या कायिक कर्म नही है, जो इस या दूसरे जन्म मे परिणाम उत्पन्न किये बिना विलीन हो जाय । कर्मवादी की दृष्टि दीर्घ इसलिए है कि वह तीनो कालो का स्पर्श करती है, जबकि चार्वाक की दृष्टि दीर्घ नही है, क्योकि वह मात्र वर्तमान का स्पर्श करती है। कर्मवाद की इस दीर्घ दृष्टि के साथ उसके वैयक्तिक, कौटुम्विक, सामाजिक और विश्वीय उत्तरदायित्व तथा नैतिक बन्धनो मे, चार्वाक की अल्प दृष्टि मे से फलित होनेवाले उत्तरदायित्व और नैतिक बन्धनो की अपेक्षा, बहुत बडा अन्तर पड जाता है। यदि यह अन्तर बराबर समझ लिया जाय और उसका अश भी जीवन मे उतरे, तब तो कर्मवादियो का चार्वाक पर किया जाता आक्षेप सच्चा समझा जायगा और चार्वाक के धर्मध्येय की अपेक्षा कर्मवादी का धर्मध्येय उन्नत और ग्राह्य है ऐसा जीवनव्यवहार से बताया जा सकता है। (द० अ० चि० भा० १, पृ०५९) शास्त्रों के अनादित्व की मान्यता जैन वाडमय मे इस समय जो श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय कर्मशास्त्र मौजूद हैं उनमे से प्राचीन माने जानेवाले कर्मविषयक ग्रन्थो का साक्षात
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy