SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ जैनधर्म का प्राण है। इसलिए व्यवहार-अपेक्षया अरिहन्तो' को श्रेष्ठ गिनकर पहिले उनको नमस्कार किया गया है। (द० औ० चि० ख० २, पृ० ५२२-५३२) देव, गुरु और धर्म तत्त्व जैन परम्परा में तात्त्विक धर्म तीन तत्त्वो मे समाविष्ट माना जाता है : देव, गुरु और धर्म । आत्मा की सम्पूर्ण निर्दोष अवस्था देवतत्त्व है, वैसी निर्दोपता प्राप्त करने की सच्ची आध्यात्मिक साधना गुरुतत्त्व है और सब प्रकार का विवेकी यथार्थ सयम धर्मतत्त्व है। इन तीन तत्त्वो को जैनत्व की आत्मा और इन तत्त्वो की सरक्षक एव पोषक भावना को उसका शरीर कहना चाहिए। देवतत्त्व को स्थूल रूप देनेवाला मन्दिर, उसमे रही हुई मूर्ति, उसकी पूजा-आरती, उस सस्था को निभानेवाले साधन, उसकी व्यवस्था करनेवाला तत्र, तीर्थस्थान--ये सब देवतत्त्व की पोषक भावनारूपी शरीर के वस्त्र और अलकार जैसे है। इसी प्रकार मकान, खाने-पीने और रहने आदि के नियम तथा दूसरे विधिविधान गुरुतत्त्व के शरीर के वस्त्र या अलकार है । अमुक चीज नही खाना, अमुक ही खाना, अमुक परिमाण मे खाना, अमुक समय पर नही खाना, अमुक स्थान पर अमुक ही हो सकता है, अमुक के प्रति अमुक ढंग से ही बरतना चाहिए इत्यादि विधि-निषेध के नियम सयमतत्त्व के वस्त्र अथवा गहने है। (द० अ० चि० भा० १, पृ० ५६)
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy