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________________ १५० जैनधर्म का प्राण वैशेषिक आदि दर्शनो मे सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि आत्मा के लक्षण बतलाये है सो व्यवहारनय की अपेक्षा से। प्र०-क्या जीव और आत्मा इन दोनो शब्दो का मतलब एक है ? उ०-हॉ, जैनशास्त्र मे तो ससारी-अससारी सभी चेतनों के विषय मे 'जीव और आत्मा', इन दोनों शब्दो का प्रयोग किया गया है, पर वेदान्त आदि दर्शनो मे जीव का मतलब ससार-अवस्थावाले ही चेतन से है, मुक्तचेतन से नही, और आत्मा शब्द तो साधारण है। जीव के स्वरूप की अनिर्वचनीयता प्र०-आपने तो जीव का स्वरूप कहा, पर कुछ विद्वानो को यह कहते सुना है कि आत्मा का स्वरूप अनिर्वचनीय अर्थात् वचनो से नही कहे जा सकने योग्य है, सो इसमे सत्य क्या है ? उ०-उनका भी कथन युक्त है, क्योंकि शब्दो के द्वारा परिमित भाव प्रगट किया जा सकता है। यदि जीव का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया जानना हो तो वह अपरिमित होने के कारण शब्दो के द्वारा किसी तरह नही बताया जा सकता। इसलिए इस अपेक्षा से जीव का स्वरूप अनिर्वचनीय है। इस बात को जैसे अन्य दर्शनो मे 'निर्विकल्प' शब्द से या 'नेति' शब्दसे कहा है वैसे ही जैनदर्शन मे 'सरा तत्थ निवत्तते तक्का तत्थ न विज्जई' (आचाराग ५-६) इत्यादि शब्द से कहा है। यह अनिर्वचनीयत्व का कथन परम निश्चय नय से या परम शुद्ध द्रव्याथिक नय से समझना चाहिए। और हमने जो जीव का चेतना या अमूर्तत्व लक्षण कहा है सो निश्चय दृष्टि से या शुद्ध पर्यायार्थिक नय से। जीव स्वयंसिद्ध है या भौतिक मिश्रणों का परिणाम ? प्र०-सुनने व पढने मे आता है कि जीव एक रासायनिक वस्तु है, अर्थात् भौतिक मिश्रणो का परिणाम है, वह कोई स्वयसिद्ध वस्तु नही है. वह उत्पन्न होता है और नष्ट भी। इसमे क्या सत्य है ? उ०—ऐसा कथन भ्रान्तिमूलक है, क्योकि ज्ञान, सुख, दुःख, हर्ष-शोक आदि वृत्तियाँ, जो मन से सबन्ध रखती है, वे स्थूल या सूक्ष्म
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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