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जैनधर्म का प्राण
१४९ उ०—निश्चय-दृष्टि से जीव अतीन्द्रिय हैं, इसलिए उनका लक्षण अतीन्द्रिय होना ही चाहिए।
प्र०-जीव तो ऑख आदि इन्द्रियो से जाने जा सकते हैं, फिर जीव अतीन्द्रिय कैसे?
उ०-शुद्ध रूप अर्थात् स्वभाव की अपेक्षा से जीव अतीन्द्रिय है। अशुद्ध रूप अर्थात् विभाव की अपेक्षा से वह इन्द्रियगोचर भी है। अमूर्तत्व-रूप, रस आदि का अभाव या चेतनाशक्ति, यह जीव का स्वभाव है, और भाषा, आकृति, मुख, दुःख, राग, द्वेप आदि जीव के विभाव अर्थात् कर्मजन्य पर्याय है। स्वभाव पुद्गल-निरपेक्ष होने के कारण अतीन्द्रिय है और विभाव पुद्गलसापेक्ष होने के कारण इद्रियग्राह्य है। इसलिये स्वाभाविक लक्षण की अपेक्षा से जीव को अतीन्द्रिय समझना चाहिए।
प्र०-अगर विभाव का सबन्ध जीव से है, तो उसको लेकर भी जीव का लक्षण किया जाना चाहिए।
उ०—किया ही है, पर वह लक्षण सब जीवो का नहीं होगा, सिर्फ ससारी जीवो का होगा । जैसे जिनमे मुख-दुःख, राग-द्वेष आदि भाव हो या जो कर्म के कर्ता और कर्म-फल के भोक्ता और शरीरधारी हो वे जीव है।
प्र०-उक्त दोनो लक्षणो को स्पष्टतापूर्वक समझाइये ।
उ०-प्रथम लक्षण स्वभावस्पर्शी है, इसलिए उसको निश्चय नय की अपेक्षा से तथा पूर्ण व स्थायी समझना चाहिये । दूसरा लक्षण विभावस्पर्शी है, इसलिए उसको व्यवहार नय की अपेक्षा से तथा अपूर्ण व अस्थायी समझना चाहिए । साराश यह है कि पहला लक्षण निश्चय-दृष्टि के अनुसार है, अतएव तीनो काल मे घटनेवाला है और दूसरा लक्षण व्यवहार-दृष्टि के अनुसार है, अतएव तीनो काल मे नही घटनेवाला है। अर्थात् ससारदशा मे पाया जानेवाला और मोक्षदशा मे नही पाया जानेवाला है।
प्र०—उक्त दो दृष्टि से दो लक्षण जैसे जैनदर्शन मे किये गए है, क्या वैसे जैनेतर दर्शनो मे भी हैं ? ।
उ०—हॉ, साडख्य, योग, वेदान्त आदि दर्शनो में आत्मा को चेतनरूप या सच्चिदानन्दरूप कहा है, सो निश्चय नय की अपेक्षा से, और न्याय,