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जैनधर्म का प्राण
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है। उसका अधिक स्पष्ट स्वरूप इस प्रकार है : मन, वचन और शरीर इनमें से प्रत्येक के द्वारा सेवन न करना, सेवन न कराना और सेवन करनेवाले को अनुमति न देना-इस नौ कोटि से सर्वब्रह्मचारी कामाचार का त्याग करता है। साधु अथवा साध्वी तो ससार का त्याग करते ही इन नौ कोटियों से पूर्ण ब्रह्मचर्य का नियम लेते है और गृहस्थ भी इसका अधिकारी हो सकता है । पूर्ण ब्रह्मचर्य की इन नौ कोटियो के अतिरिक्त इनमें से प्रत्येक कोटि को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की भी मर्यादा होती है । वह प्रत्येक मर्यादा क्रमशः इस प्रकार है । किसी भी सजीव अथवा निर्जीव आकृति के साथ नौ कोटि से कामाचार का निषेध द्रव्यमर्यादा है। ऊलोक, अधोलोक तथा तिर्यग्लोक इन तीनो मे नौ कोटि से कामाचार का त्याग क्षेत्रमर्यादा है । दिन मे, रात्रि मे अथवा इस समय के किसी भी भाग मे इन्ही नौ कोटि से कामचार का निषेध कालमर्यादा है और राग अथवा द्वेप से अर्थात् माया, लोभ, द्वेष अथवा अहकार के भाव से कामाचार का नौ कोटि से त्याग भावमर्यादा है। आशिक ब्रह्मचर्य का अधिकारी गृहस्य ही होता है। उसे अपने कुटुम्ब के अतिरिक्त सामाजिक उत्तरदायित्व भी होता है और पशुपक्षी के पालन की भी चिन्ता होती है। उसे विवाह करने-कराने के तथा पशु-पक्षी को गर्भाधान कराने के प्रसग आते ही रहते है। इसीलिए गृहस्थ इन नौ कोटियो के साथ ब्रह्मचर्य का पालन बहुत विरल रूप से ही कर सकता है। आगे जो नौ कोटियाँ कही है उनमे से मन, वचन और शरीर से अनुमति
देने की तीन कोटि उसके लिए नही होती, अर्थात् उसका उत्तम ब्रह्मचर्य अवशिष्ट छ. कोटि से लिया हुआ होता है । आशिक ब्रह्मचर्य लेने की छः पद्धतियाँ ये है
(१) द्विविध विविध से, (२) द्विविध द्विविध से, (३) द्विविध एकविध से, (४) एकविध त्रिविध से, (५) एकविध द्विविध से, (६) एकविध एकविध से। इनमे से कोई एक प्रकार गृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार ब्रह्मचर्य के लिए स्वीकार करता है । द्विविध से अर्थात् करना
और कराना इस अपेक्षा से और त्रिविध यानी मन, वचन और शरीर से; अर्थात् मन से करने-कराने का त्याग, वचन से करने कराने का त्याग