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जैनधर्म का प्राण
चौथी प्रतिज्ञा के रूप मे ऐसे भाव के ब्रह्मचर्य का स्वीकार किया जाता है। वह प्रतिज्ञा इस प्रकार है हे पूज्य गुरो | मै सर्व मैथुन का परित्याग करता हूँ, अर्थात् दैवी, मानुषी या तिर्यच (पशु-पक्षी सम्बन्धी) किसी प्रकार के मैथुन का मै मन से, वाणी से और शरीर से जीवनपर्यन्त सेवन नही करूँगा, तथा मन से, वचन से और शरीर तीनो प्रकार से दूसरो से जीवनपर्यन्त सेवन नही कराऊँगा और दूसरा कोई मैथुन का सेवन करता होगा तो उसमे मैं इन्ही तीनो प्रकार से जीवनपर्यन्त अनुमति भी नही दूगा। __ यद्यपि मुनिदीक्षा मे स्थानप्राप्त उपर्युक्त नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य ही दूसरी व्याख्या द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्मचर्य का अन्तिम और सम्पूर्ण स्वरूप है, तथापि वैसे एक ही प्रकार के ब्रह्मचर्य का हरएक से पालन कराने का दुराग्रह अथवा मिथ्या आशा जैन आचार्यों ने कभी नही रखी। पूर्ण शक्तिसम्पन्न व्यक्ति हो तो ब्रह्मचर्य का सम्पूर्ण आदर्श कायम रह सकता है, परन्तु अल्पशक्ति अथवा अशक्तिवाला व्यक्ति हो तो पूर्ण आदर्श के नाम पर दम्भ का प्रचलन न हो इस स्पष्ट उद्देश्य से, शक्ति एवं भावना की न्यूनाधिक योग्यता ध्यान में रखकर, जैन आचार्यों ने असम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का भी उपदेश दिया है। जैसे सम्पूर्णता मे भेद के लिए अवकाश को स्थान नही है वैसे असम्पूर्णता मे अभेद की शक्यता ही नही है । इससे अपूर्ण ब्रह्मचर्य के अनेक प्रकार हो और उनके कारण उसके व्रत-नियमो की प्रतिज्ञाएँ भी भिन्न-भिन्न हो यह स्वाभाविक है। ऐसे असम्पूर्ण ब्रह्मचर्य से उनचास प्रकारो की जैन शास्त्रो मे कल्पना की गई है, अधिकारी अपनी शक्ति के अनुसार उनमे से नियम ग्रहण करता है। मुनिदीक्षा के सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेने में असमर्थ और फिर भी वैसी प्रतिज्ञा के आदर्श को पसन्द करके उस दिशा मे प्रगति करने की इच्छावाले गृहस्थ साधक अपनी-अपनी शक्ति एव रुचि के अनुसार उन उनचास प्रकारो मे से किसी-न-किसी प्रकार के ब्रह्मचर्य का नियम ले सके वैसी विविध प्रतिज्ञाएँ जैन शास्त्रो मे आती है। इस प्रकार वास्तविक और आदर्श ब्रह्मचर्य मे भेद न होने पर भी व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से उसके स्वरूप की विविधता का जैनशास्त्रों मे अतिविस्तारपूर्वक वर्णन आता है।
सर्वब्रह्मचर्य नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य है और देशब्रह्मचर्य आशिक ब्रह्मचर्य